बंदर अब मिट्टी के माधो नहीं

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

हर साल की तरह इस बार भी इंस्पेक्टर पंडित जॉन अली ने दो अक्तूबर को बापू के तीन बंदरों को खादी की नई खाकी यूनिफार्म तो पहनाई, लेकिन उसके बाद उनके मुंह, आंखों और कानों से उनके हाथ हटा दिए। पूछने पर बोले कि अब न ही इन बंदरों को मुंह और आंखों को हाथ से ढकने की जरूरत है और न ही कानों पर हाथ धरने की। मेरी सवालिया निगाहों को घूरते हुए बोले, ‘‘अमां यार! तुम रहोगे कप्पू के भाई ही। उधर टप्पू टप्पों-टप्पों में ही सारी दुनिया जीत आया और तुम कप्पू की तरह हर बात का मतलब निकालने में लगे रहते हो। कप्पू के कप जैसे दिमाग में जब तक कोई तूफान उठता है, टप्पू दस नए टप्पे और मार लेता है। अब तुम लगे हो तो लगे रहो, मेरी बला से।’’ मैं सकपकाया सी उनकी ओर देखता रहा और उन्होंने अपना बोलना जारी रखा। ‘‘तु हें अब भी लगता है कि गांधी जी के बंदर अब मिट्टी के रह गए हैं। उनके हाथ जहां जमे थे, वहीं टिके हैं। जमाना हाई टेक है। तमाम खिलौनों की तरह अब बंदर भी सिंथेटिक फाइबर के हो गए हैं। अब पहले की तरह न ही उनका शरीर जाम है और न ही हाथ। वे हर दिशा में घूम सकते हैं। अब उन्होंने खुद को बुरा बोलने, देखने और सुनने से रोकने की बजाय लोगों को बुरा बोलना, दिखाना और सुनाना शुरू कर दिया है। और तो और अब मीडिया भी उनके साथ हो गया है। खाकी तो पहले ही उन्हें अपना-अपना आदर्श मान चुकी थी। वैसे खाकी तो आजादी से पहले भी वही करती थी, जो उनके गोरे हुक्मरान चाहते थे। लेकिन जब से खादी और खाकी एक हुए हैं, बंदरों ने अपने मुंह, आंख और कानों से हाथ हटा लिए हैं। रही बात गांधी जी के चश्मे की, तो उसमें वही दिखता है जो हम देखना चाहते हैं। गांधी जी से तो खाकी का जन्म-जन्म का रिश्ता है। बिना गांधी जी को देखे तो खाकी नजर भी उठाना पसंद नहीं करती। फिर गांधी जी तो अब हरे ही नहीं, कई रंगों में रंग गए हैं। खासकर वह जब से मजैंटा रंग में रंगे हैं, खाकी क्या सभी ब्लैकमेलियों की चांदी भी सोने की हो गई है। दो हजार के नए नोट आने के बाद सूटकेस का वजन भले ही पहले जैसा हो, लेकिन वैल्यू बढ़ गई है। पहले लाख रुपए के जिन नोटों के लिए लिफाफा इस्तेमाल करना पड़ता था, अब वह आराम से कमीज की जेब में समा जाते हैं। रही बात गांधी जी की, वह तो सार्वकालिक सार्वभौम हैं। पूरा विश्व मौके-बेमौके उनकी जय-जयकार तो करता है, लेकिन करता वही है, जो उसे अच्छा लगता है। नहीं तो अहिंसा कागजों तक ही क्यों सीमित रहती? बिना किसी बात के मॉब लिचिंग क्यों होती? विश्व में हथियारों और नशीले पदार्थों की बजाय गुलाब के फूल बिकते। पड़ोस के प्रधानमंत्री कश्मीर के मुद्दे पर एटम बम की धमकी देने की बजाय गुलाब देकर चर्चा को आगे बढ़ाते। किस्सा कोताह कि जब सारी दुनिया ही हमाम में खड़ी है तो खाकी क्यों पीछे रहे? बढ़ती तरक्की के साथ जब आदमी के अंदर का बंदर सार्वजनिक रूप से कैबरे करने लगा है तो खाकी ही क्यों शरमसारी में रहे?