मनोविकारों से मुकाबला

शिखर से जूझते हिमाचल को अपने धरातल की पैरवी में सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार पुष्ट करने होंगे वरना मन के बिखराव को यह युग खुद से अलहदा नहीं करता। हिमाचल के प्रगतिशील आईने में मनोवैज्ञानिक दरारें पढ़नी होंगी और समाज को अपनी सामुदायिक संरचना में मानव प्रगति को वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा से हटाकर संतुलित परिवेश से जोड़ना होगा। कुछ इसी तरह की चिंताओं के समूह अब स्वास्थ्य की चुनौती बनकर हिमाचल में दर्ज हो रहे हैं। विश्व मानसिक दिवस के अवसर पर बिलासपुर की झील में कूदी युवती अपने आप में हिमाचल की युवा दास्तान है और यह एक मात्र किस्सा नहीं है जहां इनसान अपने इर्द-गिर्द धोखे देख रहा है। निजी अपेक्षाओं, महत्त्वाकांक्षा और संवेदना में खुद को हमेशा खरा सिद्ध करने की वजह से मानसिक असंतुलन पनप रहा है। हमारी प्रवृत्ति में आ रहे परिवर्तन न तो परिवेश से सामंजस्य बैठा रहे हैं और न ही सामाजिक परंपराओं की सीमा देख पा रहे हैं। ऐसे में जब समूह का व्यवहार मर्यादित न हो और निजी सफलता की संज्ञाएं वैश्विक हो जाएं, तो व्यक्तित्व की खींचतान में नैराश्य भाव आत्मघाती होगा। प्रदेश के घटनाक्रम में मनोरोग की तरफ बढ़ती एक पीढ़ी या सामाजिक रूप से कुंठित होते लोगों को यह देखने की जरूरत है कि जीवन का सफर अपने द्वारा पैदा किए अंधियारों में न फंस जाए। यह अनुसंधान व अध्ययन का विषय केवल चिकित्सा को लेकर हो सकता है, लेकिन इसे सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक व्यवस्था में भी समझना होगा। इसका ताल्लुक सुशासन के तहत पारदर्शिता के अभाव से भी है। कमोबेश हर साल स्कूल से कालेज तक की शिक्षा में पाठ्यक्रम को बांचने और शिक्षा को बांटने की कवायद के बीच छात्रों की क्षमता, अभिरुचि, मानसिक स्थिति तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि का अवलोकन कैसे होगा। सामाजिक दौड़ में निष्प्रभावी होने के खतरे तथा अवसरवादी हालात के बीच टूटते मनोबल को कौन संवारेगा। क्या शैक्षणिक तौर पर बच्चों के व्यक्तित्व विकास के पैमाने तय हो पाते हैं या छात्र जीवन से खेलती प्रणालियों ने मानसिक अस्थिरता ही पैदा की। ऐसे में एनसीईआरटी (नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग) की ओर से आया सुझाव काफी सराहनीय है। एनसीईआरटी ने लंच ब्रेक पर बच्चों की उम्र के हिसाब से संगीत सुनाने, प्री प्राइमरी स्कूलों में आर्ट टीचिंग, तरह-तरह की गतिविधियों का संचालन तथा समुदाय की सहभागिता बढ़ाने के दिशा-निर्देश दिए हैं। शिक्षा के वर्तमान प्रारूप, पाठ्यक्रम व इसकी बुनियाद पर खड़े रोजगार के ढांचे को स्वाभाविक व सहज बनाने की जरूरत है। जीवन की उमंगों में दिखावे की घुसपैठ तथा आर्थिक रिसाव ने जो असंतुलन पैदा किए हैं, उन्हें यथार्थवादी नजरिए तथा सतत प्रसास के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। बहरहाल हमें सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय तौर पर विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ रहे मनोवैज्ञानिक प्रभाव के लिए नए सिरे से तैयार होना पडे़गा। भौतिक तरक्की के घड़े गए पैमानों को हम अपनी क्षमता व सामाजिक मूल्यों के दायरे में ही हासिल करें, तो व्यावहारिकता रहेगी, वरना तकनीकी बढ़त और ख्वाहिशों का प्रसार ऐसी प्रतिद्वंद्विता पैदा न कर दे कि अकारण जिंदगी असफल लगने लगे। हिमाचल जैसे राज्य में भी पर्वतीय कसौटियों से बाहर निकल कर नित नए आकाश खोजे जा रहे हैं और ऐसी प्रतिस्पर्धा की गुंजाइश सदा रहेगी, लेकिन जब इनसान अपने कर्म और उपलब्धियों में अकेला हो जाएगा, तो जिंदगी के खतरे सपनों को ही खोखला करेंगे। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सशक्त होने के लिए दृष्टिकोण बदलना होगा और आत्मविश्वास के दायरे में खुद को बुलंद करना पड़ेगा।