महात्मा गांधी का कश्मीर

कुमार प्रशांत

स्वतंत्र लेखक

सरदार पटेल को मुस्लिम बहुल कश्मीर में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी और वे कश्मीर से हैदराबाद का सौदा करने की बात कह भी चुके थे, हालांकि इतिहास में दर्ज है कि एकाध बार से ज्यादा सरदार इस तरह नहीं बोले। यह चुप्पी एक रणनीति के तहत बनी थी। भारतीय नेतृत्व समझ रहा था कि कश्मीर के पाकिस्तान में जाने का मतलब पश्चिमी ताकतों को एकदम अपने सिर पर बिठा लेना होगा। आजाद होने से पहले ही साम्राज्यवादी देशों का दखल रोकने की रणनीति बन गई थी…

आजादी दरवाजे पर खड़ी थी, लेकिन दरवाजा अभी बंद था। जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल रियासतों के एकीकरण की योजना बनाने में जुटे थे। रियासतें किस्म-किस्म की चालों और शर्तों के साथ भारत में विलय की बातें कर रही थीं। जितनी रियासतें, उतनी चालें! एक और चाल भी थी जो साम्राज्यवादी ताकतें चल रही थीं, लेकिन वहां एक फर्क  आ गया था। कभी इसकी बागडोर इंग्लैंड के हाथ होती थी। अब वह इंग्लैंड के हाथ से निकल कर अमरीका की तरफ जा रही थी। दुनिया अपनी धुरी बदल रही थी। औपनिवेशिक साम्राज्यवादी ताकतों का सारा ध्यान इस पर था कि भारत न सही, छूटते भारत  की ‘लंगोटी’ ही सही ! हिसाब लगाया जा रहा था कि भारत भले छोड़ना पड़े, लेकिन वह कौन-सा सिरा हम अपने हाथ में दबा लें कि जिससे एशिया की राजनीति में अपनी दखलंदाजी बनी रह सके। मुद्दा यह भी था कि आजाद हो रहे भारत पर कहां से नजर रखने में सहूलियत हो। जिन्ना साहब समझ रहे थे कि अंग्रेज उनके लिए पाकिस्तान बना रहे हैं, जबकि सच यह था कि वे सब मिलकर अपने लिए पाकिस्तान बना रहे थे। साम्राज्यवादी ताकतें खूब समझ रही थीं कि जिन्ना को पाकिस्तान मिलेगा तभी पाकिस्तान उन्हें मिलेगा। पाकिस्तान के भावी भूगोल में कश्मीर का रहना जरूरी था क्योंकि वह भारत के मुकुट को अपनी मुट्ठी में रखने जैसा होगा। अब सार्वजनिक हुए कई दस्तावेज इस षड्यंत्र का खुलासा करते हैं कि करीब 138 साल पहले, 1881 से लगातार साम्राज्यवाद यह जाल बुन रहा था। यह सच्चाई ‘उधर’ मालूम थी, तो ‘इधर’ भी मालूम थी।

सरदार पटेल को मुस्लिम बहुल कश्मीर में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी और वे कश्मीर से हैदराबाद का सौदा करने की बात कह भी चुके थे, हालांकि इतिहास में दर्ज है कि एकाध बार से ज्यादा सरदार इस तरह नहीं बोले। यह चुप्पी एक रणनीति के तहत बनी थी। भारतीय नेतृत्व समझ रहा था कि कश्मीर के पाकिस्तान में जाने का मतलब पश्चिमी ताकतों को एकदम अपने सिर पर बिठा लेना होगा। आजाद होने से पहले ही, जवाहर लाल नेहरू की पहल पर एशियाई देशों का जो सम्मेलन भारत ने आयोजित किया था और जिसमें महात्मा गांधी ने भी हिस्सा लिया था, उसमें ही यह पूर्व-पीठिका बनी और स्वीकृत हुई थी कि स्वतंत्र भारत की विदेश-नीति का केंद्रीय मुद्दा साम्राज्यवादी ताकतों को एशियाई राजनीति में दखलंदाजी करने से रोकना होगा। कश्मीर के नौजवान नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला राजशाही के खिलाफ  लड़ रहे थे और कांग्रेस के साथ थे। नए ख्यालात वाले ऐसे तमाम नौजवान जिस तरह जवाहरलाल के निकट पहुंचते थे, वैसे ही शेख भी जवाहरलाल के हुए। रियासतों के भीतर चल रही आजादी की जंग से जवाहर लाल खास तौर पर जुड़े रहते थे। स्थानीय आंदोलन की वजह से जब महाराजा हरि सिंह ने शेख मुहम्मद अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया था तो नाराज जवाहर लाल उसका प्रतिकार करने कश्मीर पहुंचे थे।  महात्मा गांधी पहले कभी कश्मीर नहीं जा सके थे। जब-जब योजना बनी, किसी-न-किसी कारण से टल गई। जिन्ना साहब भी एक बार ही कश्मीर गए थे, जब सड़े टमाटर और अंडों से उनका स्वागत हुआ था। उन पर गुस्सा इसलिए था कि वे जमींदारों व रियासत के पिट्ठू माने जाते थे। प्रस्ताव माउंटबेटन का था, जवाब गांधी से आना था। तब उनकी उम्र 77 साल थी और सफर भी लंबा और मुश्किल था, लेकिन देश का सवाल था तो गांधी के लिए मुश्किल कैसी!! वे यह भी जानते थे कि आजाद भारत का भौगोलिक नक्शा मजबूत नहीं बना तो रियासतें आगे नासूर बन जाएंगी। वे जाने को तैयार हो गए।

किसी ने कहा, इतनी मुश्किल यात्रा क्या जरूरी है? आप महाराजा को पत्र लिख सकते हैं ! कहने वाले की आंखों में देखते हुए वे बोले, हां, फिर तो मुझे नोआखली जाने की भी क्या जरूरत थी ! वहां भी पत्र भेज सकता था, लेकिन भाई, उससे काम नहीं बनता! आजादी से मात्र 14 दिन पहले, रावलपिंडी के दुर्गम रास्ते से महात्मा गांधी पहली और आखिरी बार कश्मीर पहुंचे। जाने से पहले 29 जुलाई 1947 की प्रार्थना-सभा में उन्होंने खुद ही बताया कि वे कश्मीर जा रहे हैं। मैं यह समझाने नहीं जा रहा हूं कि कश्मीर को भारत में रहना चाहिए। वह फैसला तो मैं या महाराजा नहीं, कश्मीर के लोग करेंगे। कश्मीर में महाराजा भी हैं, रैयत भी है, लेकिन राजा कल मर जाएगा तो भी प्रजा तो रहेगी। वह अपने कश्मीर का फैसला करेगी। एक अगस्त 1947 को महात्मा गांधी कश्मीर पहुंचे। तब के वर्षों में घाटी में लोगों का वैसा जमावड़ा देखा नहीं गया था, जैसा उस रोज जमा हुआ था। झेलम नदी के पुल पर तिल धरने की जगह नहीं थी। जब गांधी की गाड़ी पुल से हो कर श्रीनगर में प्रवेश कर ही नहीं सकी तो उन्हें नाव में बिठाया गया और नदी के रास्ते शहर में लाया गया। दूर-दूर से आए कश्मीरी लोग यहां-वहां से उनकी झलक देख कर तृप्त हो रहे थे, बस, पीर के दर्शन हो गए ! यह कश्मीर के बारे में भारत की पहली घोषित आधिकारिक भूमिका थी। गांधीजी के इस दौरे ने कश्मीर को विश्वास की ऐसी डोर से बांध दिया कि जिसका नतीजा शेख अब्दुल्ला की रिहाई में, भारत के साथ रहने की उनकी घोषणा में, कश्मीरी मुसलमानों में घूम-घूम कर उन्हें पाकिस्तान से विलग करने के अभियान में दिखाई दिया। जवाहर लाल-सरदार पटेल-शेख अब्दुल्ला की त्रिमूर्ति को गांधीजी का आधार मिला और आगे की वह कहानी लिखी गई जिसे रगड़-पोंछ कर मिटाने में आज सरकार लगी है।