महिलाओं का सर्वाधिक प्रिय व्रत है करवा चौथ

करवा चौथ का पर्व भारत में उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मुख्य रूप से मनाया जाता है। करवा चौथ का व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है। करवा चौथ स्त्रियों का सर्वाधिक प्रिय व्रत है। यों तो प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेश जी और चंद्रमा का व्रत किया जाता है, परंतु इनमें करवा चौथ का सर्वाधिक महत्त्व है। इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां अटल सुहाग, पति की दीर्घ आयु, स्वास्थ्य एवं मंगलकामना के लिए यह व्रत करती हैं। वामन पुराण में करवा चौथ व्रत का वर्णन आता है…

व्रत की प्रक्रिया

करवा चौथ में प्रयुक्त होने वाली संपूर्ण सामग्री को एकत्रित करें। व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात् यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें-मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये। पूरे दिन निर्जल रहें। दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इसे ‘वर’ कहते हैं। चित्रित करने की कला को ‘करवा धरना’ कहा जाता है। आठ पूरियों की अठावरी, हलुआ और पक्के पकवान बनाएं। पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं। गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें। जल से भरा हुआ लोटा रखें। बायना (भेंट) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवा में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें। उसके ऊपर दक्षिणा रखें। रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाएं। गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें। पति की दीर्घायु की कामना करें। नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥ करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासू जी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। रात्रि में चंद्रमा निकलने के बाद छननी की ओट से उसे देखें और चंद्रमा को अर्घ्य दें। इसके बाद पति से आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। जिस वर्ष लड़की की शादी होती है उस वर्ष उसके पीहर से चौदह चीनी के करवों, बर्तनों, कपड़ों और गेहूं आदि के साथ बायना भी आता है। सास भी अपनी बहू को सरगी भेजती है। सरगी में मिठाई, फल, सेवइयां आदि होती हैं। इसका सेवन महिलाएं करवाचौथ के दिन सूर्य निकलने से पहले करती हैं।

अशुभ का परिहार्य

पुराने दिनों में करवा-चौथ के दिन कोई अनर्थ होता तो इस व्रत-पर्व को अगले किसी उपयुक्त अवसर तक स्थगित कर दिया जाता था। वह उपयुक्त अवसर करवा-चौथ के दिन कोई शुभ घटना होने के रूप में ही होता। विधान फिर से शुरू करने के लिए पहले घट चुके अशुभ का परिहार्य होने तक इंतजार किया जाता।

शास्त्रों-पुराणों में उल्लेख

करवा चौथ का व्रत तब भी प्रचलित था और जैसा कि शास्त्रों-पुराणों में उल्लेख मिलता है कि यह अपने जीवन साथी के स्वस्थ और दीर्घायु होने की कामना से किया जाता था। पर्व का स्वरूप थोड़े फेरबदल के साथ अब भी वही है। लेकिन यह पति-पत्नी तक ही सीमित नहीं है। दोनों चूंकि गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं और निष्ठा की धुरी से जुड़े हैं, इसलिए उनके संबंधों पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है। असल में तो यह पूरे परिवार के हित और कल्याण के लिए है।

मान्यताएं

करवा चौथ व्रत को रखने वाली स्त्रियों को प्रातःकाल स्नान आदि के बाद आचमन करके पति, पुत्र-पौत्र तथा सुख-सौभाग्य की इच्छा का संकल्प लेकर इस व्रत को करना चाहिए। करवा चौथ के व्रत में शिव, पार्वती, कार्तिकेय, गणेश तथा चंद्रमा का पूजन करने का विधान है। स्त्रियां चंद्रोदय के बाद चंद्रमा के दर्शन कर अर्घ्य देकर ही जल-भोजन ग्रहण करती हैं। पूजा के बाद तांबे या मिट्टी के करवे में चावल, उड़द की दाल, सुहाग की सामग्री जैसे-कंघी, शीशा, सिंदूर, चूडि़यां, रिबन व रुपया रखकर दान करना चाहिए तथा सास के पांव छूकर फल, मेवा व सुहाग की सारी सामग्री उन्हें देनी चाहिए।

उजमन

अन्य व्रतों के समान करवा चौथ का भी उजमन किया जाता है। करवा चौथ के उजमन में एक थाल में तेरह जगह चार-चार पूडि़यां रखकर उनके ऊपर सूजी का हलुआ रखा जाता है। इसके ऊपर साड़ी-ब्लाउज और रुपए रखे जाते हैं। हाथ में रोली, चावल लेकर थाल में चारों ओर हाथ घुमाने के बाद यह बायना सास को दिया जाता है। तेरह सुहागिन स्त्रियों को भोजन कराने के बाद उनके माथे पर बिंदी लगाकर और सुहाग की वस्तुएं एवं दक्षिणा देकर विदा कर दिया जाता है।

पौराणिक साहित्य

पौराणिक साहित्य के सबसे आदर्श और सबसे आकर्षक युगल शिव-पार्वती हैं और भारत में पति-पत्नी के बीच के सारे पर्व और त्योहार शिव और पार्वती जी से जुड़े हुए हैं। वह पर्व चाहे हरतालिका तीज हो, मंगलागौरी, जया-पार्वती हो या फिर करवा चौथ हो। अपने पति के स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए किया जाने वाला करवा चौथ का व्रत हर विवाहित स्त्री के जीवन में एक नई उमंग लाता है। कुंवारी लड़की अपने लिए शिव की तरह प्रेम करने वाले पति की कामना करती है और इसके लिए सोमवार से लेकर जया-पार्वती तक के सभी व्रत पूरी आस्था से करती है। इसी तरह करवा चौथ का संबंध भी शिव और पार्वती से है। यह पावन व्रत किसी परंपरा के आधार पर न होकर, युगल के अपने ताल-मेल पर हो तो बेहतर है। जहां पत्नी इस कामना के साथ दिन भर निर्जला रहकर रात को चांद देखकर अपने चांद के शाश्वत जीवन की कामना करती है, वह कामना सच्चे दिल से शाश्वत प्रेम से परिपूर्ण हो, न कि सिर्फ इसलिए हो कि ऐसी परंपरा है। यह तभी संभव होगा जब युगल का व्यक्तिगत जीवन परंपरा के आधार पर न जाकर, प्रेम के आधार पर हो, शादी सिर्फ एक बंधन न हो, बल्कि शादी नवजीवन का खुला आकाश हो, जिसमें प्यार का ऐसा वृक्ष लहराए जिसकी जड़ों में परंपरा का दीमक नहीं, प्यार का अमृत बरसता हो, जिसकी शाखाओं में, बंधन का नहीं प्रेम का आधार हो। जब ऐसा युगल एक-दूसरे के लिए, करवा चौथ का व्रत करके चांद से अपने प्यार के शाश्वत होने का आशीर्वचन मांगेगा तो चांद ही क्या, पूरी कायनात से उनको वो आशीर्वचन मिलेगा। करवा चौथ महज एक व्रत नहीं है, बल्कि सूत्र है, उस विश्चास का कि हम साथ-साथ रहेंगे, आधार है जीने का कि हमारा साथ न छूटे।

करवा चौथ कथा

एक बार अर्जुन नीलगिरि पर तपस्या करने गए। द्रौपदी ने सोचा कि यहां हर समय अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाएं आती रहती हैं। उनके शमन के लिए अर्जुन तो यहां हैं नहीं, अतः कोई उपाय करना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने भगवान श्री कृष्ण का ध्यान किया। भगवान वहां उपस्थित हुए तो द्रौपदी ने अपने कष्टों के निवारण हेतु कोई उपाय बताने को कहा। इस पर श्रीकृष्ण बोले- ‘एक बार पार्वती जी ने भी शिव जी से यही प्रश्न किया था तो उन्होंने कहा था कि करवाचौथ का व्रत गृहस्थी में आने वाली छोटी-मोटी विघ्न-बाधाओं को दूर करने वाला है। यह पित्त प्रकोप को भी दूर करता है। फिर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को एक कथा सुनाई-प्राचीनकाल में एक धर्मपरायण ब्राह्मण के सात पुत्र तथा एक पुत्री थी। बड़ी होने पर पुत्री का विवाह कर दिया गया। कार्तिक की चतुर्थी को कन्या ने करवा चौथ का व्रत रखा। सात भाइयों की लाड़ली बहन को चंद्रोदय से पहले ही भूख सताने लगी। उसका फूल सा चेहरा मुरझा गया। भाइयों के लिए बहन की यह वेदना असहनीय थी। अतः वे कुछ उपाय सोचने लगे। उन्होंने बहन से चंद्रोदय से पहले ही भोजन करने को कहा, पर बहन न मानी। तब भाइयों ने स्नेहवश पीपल के वृक्ष की आड़ में प्रकाश करके कहा-‘देखो! चंद्रोदय हो गया। उठो, अर्घ्य देकर भोजन करो।’ बहन उठी और चंद्रमा को अर्घ्य देकर भोजन कर लिया। भोजन करते ही उसका पति मर गया। वह रोने-चिल्लाने लगी। दैवयोग से इंद्राणी (शची) देवदासियों के साथ वहां से जा रही थीं। रोने की आवाज सुन वे वहां गईं और उससे रोने का कारण पूछा। ब्राह्मण कन्या ने सब हाल कह सुनाया। तब इंद्राणी ने कहा- ‘तुमने करवा चौथ के व्रत में चंद्रोदय से पूर्व ही अन्न-जल ग्रहण कर लिया, इसी से तुम्हारे पति की मृत्यु हुई है। अब यदि तुम मृत पति की सेवा करती हुई बारह महीनों तक प्रत्येक चौथ को यथाविधि व्रत करो, फिर करवा चौथ को विधिवत गौरी, शिव, गणेश, कार्तिकेय सहित चंद्रमा का पूजन करो तथा चंद्रोदय के बाद अर्घ्य देकर अन्न-जल ग्रहण करो तो तुम्हारे पति अवश्य जीवित हो उठेंगे।’ ब्राह्मण कन्या ने अगले वर्ष 12 माह की चौथ सहित विधिपूर्वक करवा चौथ का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनका मृत पति जीवित हो गया। इस प्रकार यह कथा कहकर श्रीकृष्ण द्रौपदी से बोले-‘यदि तुम भी श्रद्धा एवं विधिपूर्वक इस व्रत को करो तो तुम्हारे सारे दुःख दूर हो जाएंगे और सुख-सौभाग्य, धन-धान्य में वृद्धि होगी।’ फिर द्रौपदी ने श्रीकृष्ण के कथनानुसार करवा चौथ का व्रत रखा। उस व्रत के प्रभाव से महाभारत के युद्ध में कौरवों की हार तथा पांडवों की जीत हुई।