विवाद से परे है ईश्वर का अस्तित्व

आइन्स्टाइन के मतानुसार पदार्थ एवं जीवन का स्वरूप समझना ही नहीं, उनका दूरदर्शितापूर्ण सदुपयोग करने का उपाय सोचना भी विज्ञान क्षेत्र में आता है। तत्त्व-दर्शन को विज्ञान की एक शाखा मानते हैं और जीवन क्षेत्र में रुचि रखने वालों को परामर्श देते हैं – ‘जिज्ञासा को जीवंत रखो और सोचो कि तुम क्या कर रहे हो? श्रेष्ठ व्यक्ति बनने का प्रयत्न करो। बिना दिए पाने का प्रयत्न मत करो…

-गतांक से आगे….

सत्य को सत्य ही रहना चाहिए। विज्ञान की दृष्टि में ईश्वर ‘सत्य’ है। उसकी साधना को सत्य की खोज कह सकते हैं। इस प्रकार विज्ञान को अपने ढंग का ‘आस्तिक’ और उसकी शोध-साधना को ईश्वर उपासना कहा जा सकता है। आइन्स्टाइन के मतानुसार पदार्थ एवं जीवन का स्वरूप समझना ही नहीं, उनका दूरदर्शितापूर्ण सदुपयोग करने का उपाय सोचना भी विज्ञान क्षेत्र में आता है। तत्त्व-दर्शन को विज्ञान की एक शाखा मानते हैं और जीवन क्षेत्र में रुचि रखने वालों को परामर्श देते हैं – ‘जिज्ञासा को जीवंत रखो और सोचो कि तुम क्या कर रहे हो? श्रेष्ठ व्यक्ति बनने का प्रयत्न करो। बिना दिए पाने का प्रयत्न मत करो। श्रेष्ठ व्यक्ति जीवन से अथवा व्यक्तियों से जितना लेता है, उनसे अनेक गुना, उन्हें वापस करने के प्रयत्न में लगा रहता है।’ केनोपनिषद् के ऋषि ने परब्रह्म की व्याख्या आइन्स्टाइन से मिलती-जुलती ही की है। उसका प्रतिपादन है कि परब्रह्म ऐसा कोई विचारणीय पदार्थ नहीं, जिसे मन द्वारा ग्रहण किया जा सके। वह तो ऐसा तथ्य है जिसके आधार पर मन को मनन शक्ति प्राप्त होती है। उस परम तत्त्व की सामर्थ्य से ही मन को मनन कर सकने की क्षमता प्राप्त होती है। वह परब्रह्म ही नेत्रों को देखने की, कानों को सुनने की, प्राणों को जीने की शक्ति प्रदान करता है। परब्रह्म ऐसा नहीं है जिसे इंद्रियों से देखना और मन से समझना संभव हो सके। वह सर्वांतर्यामी और निरपेक्ष है। वह कोई देवता नहीं है और न वैसा है, जिसकी परब्रह्म नाम से उपासना की जाती है। मुंडकोपनिषद के ऋषि का अभिमत भी इसी से मिलता-जुलता है। उनका कथन है कि आंखों से, जीभ से अथवा अन्य इंद्रियों से उसे जाना नहीं जा सकता। मात्र तप और कर्मकांड भी उसकी अनुभूति नहीं कराते। जिसका मन पवित्र और शांत है, वह निर्मल ज्ञान की सहायता से गंभीर ध्यान का आश्रय लेकर, उसकी प्रतीति कर सकता है। ज्ञान और अंतर्ज्ञान के अंतर एवं कार्य क्षेत्र संबंधी पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में आइन्स्टाइन ने कहा था-‘ज्ञान आवश्यक है। उसी के सहारे दैनिक क्रियाकलापों का संचालन और निर्णयों का निर्धारण होता है। फिर भी अंतर्ज्ञान का अपना क्षेत्र और अस्तित्व है।’  

(यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)