श्री गोरख महापुराण

गृहस्वामिनी कुछ नर्म भाषा में बोली, तेरे पास रखा ही क्या है जो मेरी मनोकामना पूरी करेगा। गोरखनाथ बोले, माता जी आप एक बार कह कर तो देखें कि मैं क्या कर सकता हूं। गृहस्वामिनी बोली मुझे दही बड़े के बदले तेरी एक आंख चाहिए, बोल देगा। गोरखनाथ बोले माता जी आंख कौन सी बड़ी चीज है। मैं तो गुरु इच्छा के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं। गृहस्वामिनी बोली, मैं दही बड़ा लेकर आती हूं। तब तक तू आंख निकाल कर रख…

अपने द्वार पर अतिथि संत को भिक्षा पात्र लिए भिक्षा मांगते देखकर गृहस्वामिनी अपने यहां बने पूरी, पकवान, हलवा, दही बड़े, पकौड़े आदि लेकर वह द्वार पर आ गई और गोरखनाथ के भिक्षापात्र को ऊपर तक भर दिया। गोरखनाथ ने स्वादिष्ट व्यंजनों से अपना भिक्षापात्र भरा देखा तो वह प्रसन्न हो अलख नाम का उच्चारण कर चल पड़े और वह भरा हुआ भिक्षापात्र अपने गुरु मछेंद्रनाथ के सामने रख दिया। अपने शिष्य को पर्याप्त मात्रा में स्वादिष्ट भोजन लाया देखकर मछेंद्रनाथ बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने भोजन करना शुरू कर दिया। वह भोजन करते गए और एक-एक व्यंजन की तारीफ करते गए। उन्हें उड़द की दाल के दही बड़े अधिक अच्छे लगे थे।

भोजन समाप्ति के बाद वह बोले, बेटा वैसे तो सारा ही भोजन स्वादिष्ट बना था। परंतु दही बड़े अधिक स्वादिष्ट थे। मेरा मन और दही बड़े खाने को कर रहा है। तुम फिर उसी द्वार पर जाकर एक दो दही बड़े और मांग लाओ। अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करना अनुचित समझ गोरखनाथ दोबारा दही बड़े मांगने चल पड़े और मन में सोचते गए कि अगर गृहस्वामिनी ने दही बड़े देने से इनकार कर दिया तो क्या होगा। इस प्रकार सोचते विचारते वह उसी द्वार पर  पहुंच गए और अलख नाम का उच्चारण किया। गृहस्वामिनी क्रोध भरे स्वर में बोली, मैंने तुझे काफी भोजन सामग्री दी थी। क्या उससे तेरे उदर की भूख नहीं मिटी। गोरखनाथ बड़ी मर्म भाषा में बोले, माता जी मेरे साथ में मेरे गुरुदेव भी हैं। आपसे मिली भोजन सामग्री मैंने उनके सामने रखी, तो उन्होंने उस भोजन को बड़े ही प्रेम से खाया। अभी उनकी एक दो दही बड़े खाने की इच्छा बाकी है जिस कारण मुझे दोबारा यहां आना पड़ा। आप एक दो दही बड़ा और देने की कृपा करें। गोरखनाथ की बात सुनकर गृहस्वामिनी बोली, मुझे तो तू पेटू नजर आ रहा है। तेरी ही जीभ दही बड़े खाने को लपलपा रही है। गुरु बेचारे को व्यर्थ ही बदनाम कर रहा है। गोरखनाथ बोले माता मैं कभी झूठ नहीं बोलता। आप मेरा विश्वास करें। गृहस्वामिनी बोली, मैं तुम जैसे ठगों से भलीभांति परिचित हूं। तुम जैसा ठग कभी किसी का भला नहीं कर सकते। गृहस्थियों से लूटकर खाना ही तुम्हारा धर्म है। गृहस्वामिनी के कठोर बोल सुनकर गोरखनाथ मर्म भाषा में बोले, माता जी आप मेरे गुरु की इच्छा पूर्ति कर दें तो मैं आपकी हर परेशानी दूर करने की कोशिश करूंगा।  गृहस्वामिनी कुछ नर्म भाषा में बोली, तेरे पास रखा ही क्या है जो मेरी मनोकामना पूरी करेगा। गोरखनाथ बोले, माता जी आप एक बार कह कर तो देखें कि मैं क्या कर सकता हूं। गृहस्वामिनी बोली मुझे दही बड़े के बदले तेरी एक आंख चाहिए, बोल देगा। गोरखनाथ बोले माता जी आंख कौन सी बड़ी चीज है। मैं तो गुरु इच्छा के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं। गृहस्वामिनी बोली, मैं दही बड़ा लेकर आती हूं। तब तक तू आंख निकाल कर रख। इतना कह जब गृहस्वामिनी ने दही बड़ा लाने के लिए मुख मोड़ा तो गोरखनाथ ने आंख में अंगुली डाल पुतली को जोर से झटका मारकर आंख बाहर निकाल ली, जिसके कारण गोरखनाथ की आंख से खून टपकने लगा।  गृहस्वामिनी जब दही बड़ा लेकर लौटी, तो गोरखनाथ की करतूत देख बेचारी के होश उड़ गए। वह मन ही मन दुःखी होकर दही बड़ा देकर जाने लगी, तो गोरखनाथ बोले माता जी आंख तो

लेती जाओ।