काला कोट बनाम खाकी वर्दी

काला कोट धारी वकीलों और खाकी वर्दी वाले पुलिसकर्मियों के बीच स्थिति बेहद उग्र हो गई थी। तनाव और फासले अब भी हैं। यह अभूतपूर्व और अप्रत्याशित परिदृश्य है। दोनों को कानून के रखवाले और सूत्रधार माना जाता रहा है। बल्कि वे पूरक की भूमिका में रहे हैं। आज उनके दरमियान समानांतर विभाजक रेखाएं खिंच गई हैं। दोनों ने मर्यादा की लक्ष्मण-रेखा लांघी है। आज समीकरण ऐसे हैं मानो दोनों कट्टर दुश्मन हों! इसी के नतीजतन स्वतंत्र भारत के 72 साल में पहली बार पुलिस कर्मियों को अपने ही मुख्यालय के सामने करीब 11 घंटे तक धरना-प्रदर्शन करना पड़ा। उनके कुछ सवाल थे और मांगें भी थीं। आंदोलनों और अराजकता से उबारने वाली पुलिस खुद ही आंदोलित रही। अनुशासित बल के तौर पर ख्यात दिल्ली पुलिस ही आक्रोश में नहीं थी, बल्कि उनके परिजन भी सड़क पर उतरे। उन्हें इंसाफ  चाहिए था। उनके साथियों का निलंबन वापस लिया जाना चाहिए था। बेशक विरोध-प्रदर्शन तो समाप्त हो गया और पुलिसवाले अपनी ड्यूटी पर लौट गए और घर वाले भी चले गए, लेकिन अब भी कई सवाल अनसुलझे हैं। आखिर ऐसी परिस्थितियां क्यों बनीं? पुलिस आयुक्त समेत आठ उसी स्तर के अफसरों ने नाराज पुलिसकर्मियों को समझाने-मनाने की लगातार कोशिश की, लेकिन प्रदर्शनकारी अड़े रहे। यदि इसी तरह पुलिसवाले अपने कमांडिंग अफसर का आदेश या अनुरोध नहीं मानेंगे, तो इससे भी अराजकता फैल सकती है। यह भी एक गंभीर सवाल है, लेकिन परिस्थितियां और संदर्भ भिन्न थे। बहरहाल बीती दो नवंबर को एक अदालती परिसर में वकीलों और पुलिसकर्मियों के बीच टकराव और मारा पीटी पहली बार नहीं हुई। इलाहाबाद, लखनऊ, चेन्नई और चंडीगढ़ आदि के अदालती परिसरों में इस ठोकतंत्र को कई बार देखा जा चुका है। इस बार भी हम विवाद के चश्मदीद नहीं थे, लेकिन जो वीडियो टीवी चैनलों पर देखे गए, उनमें वकील पुलिसवालों को जमकर पीट रहे थे। एक पुलिसकर्मी मार खाकर जमीन पर भी गिर पड़ा था। मामला सिर्फ  वाहन की पार्किग का था। उसी के मद्देनजर एक वकील पुलिस की गोली का भी शिकार हुआ। वह अब भी अस्पताल में बताया जाता है। इतने से बवाल ने जानलेवा रूप धारण कर लिया। किसी भी पक्ष का दोष हो, लेकिन ये दृश्य ‘गुंडागर्दी’ के हैं। यह असहिष्णुता है और असामाजिक व्यवहार भी…! दिल्ली के हजारों वकील हड़ताल पर चले गए, जबकि सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के फैसले हैं कि ऐसी हड़ताल ‘अवैध’ है। अदालतों ने इन पर पाबंदी भी थोप रखी है, लेकिन वकील का अहंकार है कि वह खुद संविधान का व्याख्याता है। वकील तो जजों के खिलाफ  हिंसक व्यवहार पर उतरते रहे हैं। बहरहाल वकीलों ने हड़ताल की, तो सवाल उठा कि यदि कानून-व्यवस्था की बुनियादी ईकाई-पुलिस ने भी हड़ताल शुरू कर दी, तो राष्ट्रीय राजधानी के हालात क्या होंगे? सिर्फ 11 घंटों में ही दिल्ली बिखर कर रह गई। हर तरफ  जाम ठहर गए। नेशनल हाइवे को दोनों ओर से अवरुद्ध किया गया। उस अराजकता में ‘अलर्ट’  घोषित दिल्ली में कोई आतंकी हमला हो गया होता, तो क्या होता? यदि पुलिस बल ही मुख्यालय का घेराव कर नारेबाजी करेगा, तो देश में क्या संदेश जाएगा। दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के दफ्तर और आवास मौजूद हैं। बेशक पुलिस और वकीलों के ये किरदार अनपेक्षित हैं। सवाल है कि ऐसे मामलों में जो न्यायिक तत्परता वकीलों के पक्ष में सामने आती है, वह पुलिस, डाक्टर और दुकानदार या अदालत के छोटे कर्मचारी अथवा आम आदमी के पक्ष में दिखाई क्यों नहीं देती? न्यायिक  तत्परता तो सभी को इंसाफ  देने के लिए है। वकील-पुलिस झड़प के बाद पुलिसकर्मियों को निलंबित और स्थानांतरित करने के आदेश उच्च न्यायालय ने दे दिए, लेकिन वकीलों पर कोई त्वरित कार्रवाई क्यों नहीं की गई? बहरहाल जिस न्यायिक जांच के आदेश दिए गए थे, हम उसके निष्कर्षों की प्रतीक्षा करेंगे, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार भी आंख मूंद कर नहीं बैठ सकते। पुलिस जैसे सशस्त्र बल का सड़क पर आना अप्रत्याशित है, पुलिस यूनियन की मांग पर अड़े रहना भी भविष्य का संकेत है, सुरक्षा-व्यवस्था भी संदेहास्पद हो सकती है, लिहाजा ऐसे तमाम सवालों को संबोधित किया जाना चाहिए।