देवभूमिः समाज व चुनौती

चंद्रशेखर 

लेखक, मंडी से हैं

मंडी जिला के समाहल गांव में एक फौजी की विधवा के साथ हुई घटना समाज व व्यवस्था के स्थापित मान्यताओं के चेहरे पर काला धब्बानुमा नजर आती है। जब यह लिख रहा हूं, उस वक्त गुनाहगारों को कानून अपनी गिरफ्त में ले चुका है, कानून की हिफाजत करने वाली पुलिस राजनीतिक निर्देश व माननीय उच्च न्यायालय के दबाव में आकर अपने कर्त्तव्यों का पालन पूरी सख्ती से करती नजर आ रही है। महिला आयोग व सामाजिक कार्यकर्ता भी अपनी भूमिका में नजर आ रहे हैं। वकील भी केस की गंभीरता को समझाते हुए गुनाहगारों के भागते तीमारदारों को फीस मॉडल समझा चुके होंगे।

आंदोलन करने वालों के लिए उपयुक्त जमीन तैयार हो चुकी होगी व मोमबत्ती जुलूस तक तो कम से कम समाज को प्रतीकात्मक तौर पर जगाया ही जा सकेगा। वैसे यह घटना कानून को अपने हाथ में लेकर, अपने देवता का आदेश बताकर स्वयं नतीजे में पहुंचकर व न्याय करने के बहाने एक ऐसा अमानवीय कृत्य, वह भी मां कहे जाने वाली वृद्ध महिला से, घोर निंदनीय ही नहीं, अपितु पीड़ादायक व असहनीय है। यह देव संस्कृति की आड़ में रूढि़वादी, कुविचार, अत्याचार, दुराचार करने वाली परंपरा की कड़ी मात्र है।

राहत की खबर यही है कि राज्य में प्रभाव रखने वाली देवलुओं की सर्वोच्च संस्था ने अपने को इस घटना के खिलाफ खड़ा किया तथा भविष्य में ऐसा कुछ न हो, इसको भी चेतावनी के लहजे में लिया। हिमाचल पुराने समय से ही देव संस्कृति की जबरदस्त पकड़ में रहा। व्यक्तिगत आकांक्षाओं से लेकर सामाजिक जीवन शैली में देव संस्कृति हमेशा प्रभावशाली रही है। शायद ही कोई राजनीतिक नेतृत्व या कोई बड़ा नेता, समय-समय पर मजबूरीवश या कहें गहरे हो चुके संस्कारों की वजहों से अपने को देव संस्कृति के साथ निरंतर खड़ा हुआ दिखाई देता है।

कालांतर में कोई ऐसा आंदोलन या चिंतन भी नहीं हुआ जो इस देव संस्कृति में समाहित बलि प्रथा, यक्ष भूत-प्रेत व आडंबरों से भरे गांव या क्षेत्र स्तर के घृणित आदेशों के खिलाफ वैज्ञानिक आधार पर प्रश्न खड़े कर पाता। यही वजह रही कि परंपरा से चले आ रहे इस जीवन की पहाड़ी शैली को हर पीढ़ी आज्ञा समझ कर अपनाती चली गई व अपनी जिज्ञासाओं को भविष्य की जानकारी, बारिश व सूखे से बचने या पुत्र चाह की आस में शरणागत होने का निकटतम स्रोत के तौर पर स्वीकारती रही। कबाइली क्षेत्र, शिमला से सिरमौर, कुल्लू-मंडी, चंबा व कुछ हिस्सा कांगड़ा या लगभग व्यापक तौर पर पूरा हिमाचल इस देव संस्कृति की छांव में वास करता है। हमारे यहां त्योहार व मेले भी साल दर साल ढोल-नगाड़ों के थाप में इस बात की पुष्टि करते घोषणा करते हैं। इसे जीवन शैली कहें या देव संस्कृति, इसके तहत आने वाले समूचे क्षेत्र में, जातिगत आधार पर सामाजिक बंटवारा व शोषण आसानी से होता रहा।

इस आग की आंच में स्कूलों के नन्हें-मुन्ने भी समय-समय पर मिड-डे मील योजना के तहत शिकार हुए। बेजुबान बकरे, मुर्गे, भैंसे, भेड़ू, माननीय उच्च न्यायालय के आदेशों के होने के बावजूद, आस्था के प्रतीक बनकर, राजनीतिक व प्रशासनिक अधिकारियों की घुटनाटेक पशोपेश गोलमोल रवैया भी इस देव संस्कृति के आगे नतमस्तक होने का कोई मौका न चूकते हुए रोज हजारों की तादाद में बलि चढ़ते रहे हैं। ग्रामीण हिमाचल में न जाने कितने ही गरीब, भोले-भाले, बीमार, लाचार, कुपोषित जनता, अस्पतालों में जाने के बजाय चिकित्सकीय जांच करवाने के बजाय मंदिरों, देवताओं, गूरों, चेलों व कई तरह के धार्मिक पाखंड़ों में लाखों लाख मेहनत की कमाई गंवा कर अपनी जान दे देते हैं।

सच कहूं तो सबसे ज्यादा शिकार इन हालात में गांव की औरत होती है। सही जानकारी न होना, शिक्षा का न होना, पुरुष लोगों का काम के सिलसिले में घरों से महीनों बाहर रहना, तथाकथित धर्म व समाज के ठेकेदारों का ग्रामीण वातावरण व युवा पीढ़ी का दकियानूसी व अति रूढि़वादी विचारों के खिलाफ विद्रोह न करना, इत्यादि कारण आग में घी का  काम करते हैं।