ध्यान में मग्न

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

बहुत अनुरोध करने पर भी स्वामी जी ने उनसे मित्रता के स्मृति चिन्ह के रूप में एक छोटी सी चीज लेकर शेष सबको अस्वीकार कर दिया। दीवान बहादुर ने स्वामी जी को छोटी सी गठरी में छोटा सा एक बंडल रख देने के लिए चेष्टा की, किंतु सफल न हो सके। इससे दीवान बहुत दुःखी हुए। तब स्वामी जी ने उन्हें दुःखी देखकर कहा, अच्छा ऐसा है तो मैं कोचीन तक दूसरी श्रेणी का रेल टिकट तुमसे लिए लेता हूं। दीवान बहादुर इस बात पर कोचीन राज्य के दीवान के लिए परिचय पत्र देते हुए बोले, स्वामी जी मेहरबानी होगी आप मेरे एक अनुरोध को स्वीकार कर लें। आप पैदल तीर्थ यात्रा मत कीजिए। कोचीन राज्य के दीवान जी आपकी रामेश्वर तक जाने की पूर्ण व्यवस्था कर देंगे। स्वामी जी कोचीन राजधानी त्रिचुर में कुछ दिन तक आराम करके मालावार से होकर त्रिवेंद्रम पहुंचे। त्रावणकोर महाराजा के भतीजे के गृह शिक्षक अध्यापक सुंदरम अयूयर ने उन्हें आदर के साथ मेहमान बनाया। स्वामी जी ने उसके द्वारा त्रावणकोण के महाराज दीवान बहादुर तथा प्रिंस मार्तंड वर्मा के साथ परिचय प्राप्त किया। मथुरा में रामनंद के राजा भास्कर सेतुपति उच्च शिक्षा प्राप्त किए हुए थे, फिर भी स्वामी जी  के प्रति इतने श्रद्धावान हुए कि थोड़े ही दिनों में उन्होंने स्वामी जी का शिष्यत्व प्राप्त कर लिया। किंतु स्वामी जी यहां राज सम्मान का लाभ उठाने के लिए नहीं आए थे। उन्होंने भारत की वर्तमान समस्याओं तथा उनसे समाधान की तरफ सेतुपति राज की दृष्टि आकर्षित थी। कुछ दिन मथुरा में बिताकर स्वामी जी दक्षिण भारत के रामेश्वर में भगवान श्रीरामचंद्र द्वारा स्थापित शिव के तथा अन्य बड़े-बड़े मंदिरों के दर्शन करके कन्याकुमारी की तरफ चले। भारत की अंतिम सीमा अवस्थित कन्याकुमारी पहुंचकर वहां के मंदिरों में स्वामी जी ने प्रवेश किया और देवी को साष्टांग प्राणिपात करते हुए उन्होंने कहा, मां मैं मुक्ति नहीं चाहता तुम्हारी सेवा ही मेरे जीवन का एकमात्र व्रत है। समुद्र के जल में एक शिलाखंड पर बैठकर स्वामी जी गहन ध्यान में मग्न हो गए। इस ध्यान में उन्हें एक नया प्रकाश दिखाई दिया। रास्ते का पता मिला। उन्होंने अपने भीतर श्री रामकृष्ण देव का कंठ स्वर सुना, तब उन्होंने लाखों दुःखी भारतवासियों के प्रतिनिधि के रूप में पाश्चात्य देशों में जाने का संकल्प किया, क्योंकि वहां जाकर उन्हें भारत के प्रति पाश्चात्य देशवासियों की दृष्टि आकर्षित करनी थी,विश्वबधुत्व का संदेश प्रचारित करना था, निंद्रित मानवता को प्रबोधित करना था,भारत के दुःखी दैन्य के अवसान के लिए प्रयत्न करना था। इसके बाद स्वामी जी कन्याकुमारी से पांडिचेरी की ओर रवाना हो गए। यहां थोड़े ही समय में कुछ शिक्षित लोग उनके अनुरागी बन गए। यहां आने के बाद थके हुए स्वामी विवेकानंद को कुछ दिन आराम का मौका भी मिला। यहां पर एक दक्षिण कट्टर ब्राह्मण विद्वान के साथ हिंदू धर्म व उसके संस्कार के विषय में स्वामी जी की बातचीत हुई। पंडित जी ने स्वामी जी के उन्नतिशील प्रस्तावों को सुनकर युक्ति के बदले गालियों की बौछार लगा दी और आग बबूला हो उठे।