फिर बादलों के नीचे

मौसम से जूझने की एक और पारी में हिमाचल पुनः अपनी पर्वतीय शृंखलाओं को बर्फ होते देख रहा है। मौसम की अनेक परीक्षाओं के बीच प्रदेश की मिलकीयत में हर अंदाज का अपना रुआब और रोना है। बर्फ से टकराती जिंदगी का हर बार नया आगाज और इस लिहाज से पर्वत को समझने की एक राष्ट्रीय व्यवस्था चाहिए। विडंबना यह है कि न तो बर्फ को दौलत मानकर हिमाचल के आर्थिक संसाधन बढ़ते हैं और न ही जल में बदलते मौसम के परिवर्तन को अमानत का रुतबा हासिल है। मौसम का बदल-बदलकर आना और पर्वतीय जीवनशैली के मुहावरों से खेलना तो एक बात है, लेकिन जब किसी इलाके में बर्फबारी से कैद हो जाने का सबब बढ़ता है, तो योजनाओं की परिकल्पना में तरक्की के रास्ते भी कुंद हो जाते हैं। मौसम हर बार बंधक बनाता और अब तो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव ने इसके ही चक्र को विचलित तथा अनिश्चित कर दिया है। हिमाचल को प्रत्येक मौसम के हिसाब से चलना पड़ता है, तो बर्फ के जमाव को बारिश नहीं धो पाती और बादलों के झुंड मे इनके फटने की दरार रुक नहीं पाती। ऐसे में पर्वतीय नीतियों के अभाव से राष्ट्र का योगदान केवल आनुपातिक रहम सरीखा बन जाता है। बरसाती नुकसान की आर्थिक अर्थियां ग्यारह सौ करोड़ की बर्बादी को उठाकर घूमती-घूमती अब पर्वत के बिगड़े मिजाज में सर्द हवाओं से रू-ब-रू होंगी। हो सकता है बर्फबारी के अंदाज में सैलानी मनाली, शिमला या डलहौजी में मौज मस्ती कर जाएं, लेकिन कबायली इलाकों के लिए आफत के नजारे सारी जिंदगी का विरोधावास बन जाते हैं। हिमाचल के परिदृश्य में पश्चिमी विक्षोभ की सक्रीयता को पढ़ पाना इसलिए भी कठिन है, क्योंकि मौसम विभाग के संयंत्र बदलते रंग को पूरी तरह पढ़ नहीं पाते और किसान-बागबान खुले आकाश में अपने अनुमान पर दिहाड़ी लगाता रहता है। पिछली सर्दियों से कहीं अलग मौसम के मूड पर टिप्पणी करना अगर आसान नहीं, तो बढ़ती अप्रत्याशित घटनाओं के बीच मौसम चक्र का पथभ्रष्ट होना, वैज्ञानिक अवधारणाओं पर शंका करता है। मौसम से जलवायु तक परिवर्तित होती दिशाएं वैज्ञानिक बोध को छल रही हैं या कहीं इसके मूल तत्त्व ही इनसानी फितरत से रूठ गए। पिछले साल की सर्दी में सात बार अगर पश्चिमी विक्षोभ हुआ, तो इसने कोहरे के घनत्व को काफी हद तक कम किया। यह दीगर है कि इस दौरान सर्दी की बारिश तीव्र रही और ओलावृष्टि भी भयंकर हो गई। तापमान के उतार-चढ़ाव में पश्चिमी विक्षोभ का असर, बादलों की गड़गड़ाहट, आर्द्रता का प्रसार, पवन का संचार और इसके बहने की अदा में हिमाचली बस्तियों के ऊपर से गुजरते मौसम के संग वायु दबाव और भार के नीचे हम फिर तैयार हैं। सेब के बागीचे और कड़ाके की ठंड से गुजरने की सोहबत में ‘कूलिंग आवर्ज’। बादलों की अबूझ पहेलियों और मौसम विज्ञानियों की भविष्यवाणियों के बावजूद कहीं न कहीं चरम घटनाओं की आहट में न जाने विश्लेषणों के कितने निष्कर्ष टूटेंगे और मानवीय आशाएं चकनाचूर होंगी, फिर भी यह खबर रोमांचित करती है कि पहाड़ पर धीरे-धीरे चांदी बिखर रही है। सर्दी के सामान्य रहने की उम्मीदों में हिमाचल के वक्ष में बहती नदियां, ठेठ मरुस्थल तक सोने सरीखा पानी ले जाएं और बर्फ ओढ़कर पहाड़ अपने दामन में समेट कर ग्लेशियरों को पिघलने से रोक दे। हिमाचल पुनः सर्दी के आलम में देश के लिए जलवायु के संतुलन की परीक्षा में उतर रहा है, हर बार की तरह।