भगवान दास राष्ट्रीय शिक्षक हो गए

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

पंडित जॉन अली अखबारों के पन्ने पलट रहे थे कि उनकी नजर उस खबर पर पड़ी, जिसमें भगवान दास के राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान से अलंकृत होने का ब्यौरा छपा था। उनकी प्रशस्ति में स्थानीय संवाददाताओं ने बढ़-चढ़ कर कसीदे गढ़े थे। अपने जमाती के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित होने की खबर पढ़कर उनकी बांछे खिल उठीं, लेकिन अगले ही पल उनके दिमाग में अपने बचपन के तमाम वे दृश्य घूम गए, जिसमें भगवान दास पाठशाला में पढ़ाई के मामले में केवल भगवान भरोसे ही नजर आते थे। लिखाई के लिए रोजाना दो-चार बार और व्यक्तिगत सफाई के मामले में भी जांच के दौरान उनका सेवा-पानी लगभग निश्चित ही था। घिसट-घिसट कर दसवीं की परीक्षा कुछ शिक्षकों की मदद से उसी तरह पास कर पाए जैसे सरकार द्वारा तयशुदा रोजाना कैलोरी से भी कम मिलने पर गरीब किसी तरह सांसें लेकर जिंदा रहता है। जमाना भला था, तब स्कूल या कालेज में पढ़ाने के लिए अनिवार्य योग्यता जुगाड़ने के लिए  प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग नहीं लेना पड़ता था। जेबीटी में किसी प्रमाण-पत्र के बूते अन्य उच्चांक प्राप्त लोगों के साथ उसी तरह दाखिला पा गए, जैसे कोई अनपढ़-अनगढ़ नेता चुनाव जीतने के बाद हाई क्लास बाबुओं की जमात में शामिल हो जाता है। अध्यापन प्रशिक्षण में डिप्लोमा हासिल करने के बाद वह किसी रंगे सियार की तरह सरकारी सेवा को प्राप्त हो गए। उन्हें पहली पोस्टिंग दूरदराज के ऐसे स्कूल में मिली, जहां पहुंचने के लिए सड़क से कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। तनख्वाह वाले दिन को छोड़कर, कभी दोनों रात-दिन की तरह स्कूल में एक नहीं हुए। धीरे-धीरे उन्होंने अंध महासागर सरीखे शिक्षा जगत में तैरना सीखने के बाद जल्द ही विभागीय बाबुओं की मदद से शहर के बीचोंबीच स्थित केंद्रीय प्राइमरी स्कूल में ट्रांसफर ले लिया। उन्होंने स्थानीय विधायकों से दूध-पानी की ऐसी दोस्ती गांठी कि सरकार चाहे किसी भी दल की होती, वह उसी स्कूल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के लौह स्तम्भ की तरह अटल रहते। अध्यापन छोड़कर इला़के की अन्य गतिविधियों में ऐसे सक्रिय रहते मानो किसी एन०जी०ओ० के कर्ता-धर्ता हों। उन्होंने स्कूल में शिक्षा की ऐसी अलख जगाई कि भले ही चिराग तले अंधेरा रहा, लेकिन रिटायरमेंट से पहले राज्य और राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार लेकर ही माने। पंडित जब उन्हें बधाई देने पहुंचे तो उनके कुछ बोलने से पहले ही भगवान दास खुशी से उनके गले लगते हुए बोले, ‘अमां यार! आखिर मैंने पुरस्कार जुगाड़ ही लिया।’  पंडित ने आश्चर्य से पूछा, ‘जुगाड़ लिया से क्या मतलब?’ तो दांत निकालते हुए बोले, ‘यार, तुम्हें तो पता है कि हर क्षेत्र में पुरस्कार कैसे दिए जाते हैं? मैंने पुरस्कार के लिए निर्धारित आवेदन-प्रपत्र में दिए कालमों को किसी नेता के दावों की तरह खूब भरा। जांच के लिए जो अधिकारी आए थे, उन्हें शहर के अच्छे होटल में ठहराया, पांच मकारों का सादर भोग लगाया। पुरस्कार की जो राशि अलंकरण समारोह के दौरान दी जाती है, वह मैंने उन्हें विदा होते समय भेंट कर दी थी। ऐसे में मेरा चुनाव होना तो तय ही था।’ पंडित ने जब उनसे सारे खेल का हासिल पूछा तो बोले, ‘यार! सेवा विस्तार के दौरान जो कमाऊंगा वह पुरस्कार की राशि से कई गुना अधिक होगा। दूसरे पूरी दुनिया को पता चल गया कि मैं महान शिक्षक हूं। ऐसा नहीं होता तो क्या तुम मुझसे मिलने आते?’