किसी अजूबे से कम नहीं हैं महाभारत के पात्र

संपूर्ण तीर्थों की यात्रा करने के पश्चात विदुर जी हस्तिनापुर आए। उन्होंने मैत्रेय जी से आत्मज्ञान प्राप्त किया था। धर्मराज युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुंती, गांधारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा कृपी नगर के गणमान्य नागरिकों के साथ विदुर जी के दर्शन के लिए आए। सभी के यथायोग्य अभिवादन के पश्चात युधिष्ठिर ने कहा, ‘हे चाचाजी! आपने हम सब का पालन-पोषण किया है और समय-समय पर हमारी प्राणरक्षा करके आपत्तियों से बचाया है। अपने उपदेशों से हमें सन्मार्ग दिखाया है। अब आप हमें अपने तीर्थयात्रा का वृत्तांत कहिए। अपनी इस यात्रा में आप द्वारिका भी अवश्य गए होंगे, कृपा करके हमारे आराध्य श्रीकृष्ण चंद्र का हालचाल भी बताइए।’ …

-गतांक से आगे…

स्मरण करते ही वेदव्यास वहां उपस्थित हो गए। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, ‘हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसंतान ही स्वर्गवासी हो गए। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिए मैं तुम्हें आज्ञा देती हूं कि तुम उनकी पत्नियों से संतान उत्पन्न करो।’ वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, ‘माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिए कि वे एक वर्ष तक नियम व्रत का पालन करते रहें, तभी उनको गर्भ धारण होगा।’ एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गए। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बंद कर लिए। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, ‘माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा, किंतु नेत्र बंद करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।’ सत्यवती को यह सुन कर अत्यंत दुःख हुआ और उन्होंने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, ‘माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।’ इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनंदपूर्वक वेदव्यास से भोग कराया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आकर कहा, ‘माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदांत में पारंगत अत्यंत नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।’ इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गए। समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

विदुर का धृतराष्ट्र तथा गांधारी को उपदेश एवं वनगमन

संपूर्ण तीर्थों की यात्रा करने के पश्चात विदुर जी हस्तिनापुर आए। उन्होंने मैत्रेय जी से आत्मज्ञान प्राप्त किया था। धर्मराज युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुंती, गांधारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा कृपी नगर के गणमान्य नागरिकों के साथ विदुर जी के दर्शन के लिए आए। सभी के यथायोग्य अभिवादन के पश्चात युधिष्ठिर ने कहा, ‘हे चाचाजी! आपने हम सब का पालन-पोषण किया है और समय-समय पर हमारी प्राणरक्षा करके आपत्तियों से बचाया है। अपने उपदेशों से हमें सन्मार्ग दिखाया है। अब आप हमें अपने तीर्थयात्रा का वृत्तांत कहिए। अपनी इस यात्रा में आप द्वारिका भी अवश्य गए होंगे, कृपा करके हमारे आराध्य श्रीकृष्ण चंद्र का हालचाल भी बताइए।’ अजातशत्रु युधिष्ठिर के इन वचनों को सुन कर विदुर जी ने उन्हें सभी तीर्थों का वर्णन सुनाया, किंतु यदुवंश के विनाश का वर्णन न कहना ही उचित समझा। वे जानते थे कि यदुवंश के विनाश का वर्णन सुन कर युधिष्ठिर को अत्यंत क्लेश होगा और वे पांडवों को दुखी नहीं देख सकते थे। कुछ दिनों तक विदुर प्रसन्नतापूर्वक हस्तिनापुर में रहे। विदुर जी धर्मराज के अवतार थे।                                       -क्रमशः