विष्णु पुराण

स्वर्भानोस्तुरगा ह्याष्टौ भृगाभा धूसरं रथम।

सकृद्यक्ति मैत्रेय णहृन्त्यचरत सदा।।

आदित्यान्निततो राहुः सोमं गच्छति पर्वसु।

आदित्यमेति सेामच्च पुनः सौरेषु पर्वसु।।

तथा केतुरथस्याश्वा अप्यष्टौ वातरहसः।

पलालधूमवर्णाका लाक्षारसंन्नभारुणः।।

एते मया ग्रहाणां वै तवाख्याता रथा नव।

सर्वेध्रुवे महाभागा प्रबद्धा वायरश्मिभिः।।

ग्रहर्क्षताराधिण्यानि धु्रवे बद्धान्यमेवतः।

भ्रमग्त्युचितचारेण मैत्रेयानिलरश्मिभिः।।

यावन्त्यश्चैव तारास्तवंतो वातारश्मिभिः।

सर्वेधु्रवे निबद्धास्ते भ्रामंतो भ्रामयंति तम।।

तैलपीडा तथा चक्रं भ्रमंते भ्रामयंति वै।

तथा भ्रमंति ज्योतीषि वाताचक्रेरितरनि तु।

यस्माज्जयोतिषि वहित प्रवहस्सन स स्मृतः।।

राहु का रथ धूसर वर्ण वाला है। उसमें भौरों के समान वाले रंग से आठ अश्व जुते हैं। उन घोड़ों को एक बार जोड़ दिया जाए, तो वे निरंतर अबाध गति से चलते रहते हैं। चंद्रमा के पर्वों पर यह राहु से निकलकर चंद्रमा में जाता और सूर्य के पर्वों पर चंद्रमा से निकल कर सूर्य में स्थित होता है। ऐसे ही केतु के रथ में जुड़े वायुवेग वाले आठ घोड़े पताल धूम वर्णा जैसी आभा और लाल जैसे लाल वर्ण के हैं। हे महाभाग! यह नवग्रह के रथों का वर्णन मैंने तुमसे किया है। यह सभी ग्रह वायुमयी रस्सी के साथ ध्रुव से बंधे हैं। हे मैत्रेय जी! सभी ग्रह नक्षत्र और तारे वायुमयी डोर से धु्रव के साथ बंधकर भ्रमण करते रहते हैं। जितने तारे हैं उतनी ही वायुमयी रस्सियां है, उनसे बंधकर यह घूमते हुए ध्रुव को घुमाते रहते हैं। जैसे तेली स्वयं घुमते हुए कोल्हू को घुमाते रहते हैं, वैसे ही सब ग्रह वायु के बंधन में घूमते रहते हैं। इस वातमय चक्र में प्रेरणा से समस्त ग्रह जलात चक्र के समान घूमने के कारण इसे प्रवह कहा गया है।

शिशुतारस्तु यः प्रोतः सधु्रवोतत्र तिष्ठति।

सन्निवेणं च तस्यापि शृणुष्व मुनिसत्तम।।

यदहना कुरुते पायं तं दृष्टवा निशि मुच्यते।

यावंत्ताचैव तारास्ताः शिशुमाराश्रिता दिवि।।

तावंत्ययेव तु वर्षाणि जीवत्य भ्यधिकानि च।

उत्तानपादस्तस्याथो विज्ञेयोह्मत्तरो ह नुः।।

यज्ञोऽधरञ्च विज्ञेयो मूर्द्वानमाश्रितः।

हृदि नारायणश्चास्ते अश्विनौ पूर्वपादयोः।।

पहले जिस शिशुमार चक्र का वर्णन किया जा चुका है और वहां धु्रव स्थित है, अब उसकी स्थिति के विषय में कहता हूं सुनो। जिस मनुष्य से पाप कर्म हो गए हों वह मनुष्य रात्रि काल उसका दर्शन करने से उन पापों से छूट जाता है तथा आकाश मंडल में जितने तारागण इस चक्र के आश्रित हैं, उनसे संख्यक अधिक वर्ष तक जीवित रहता है। उत्तानपाद उसकी ऊपर को ठोढी समझी जाती है। यज्ञ के उसके नीचे की ठोढी है, धर्म उसके मस्तक पर स्थित है, नारायण उसके हृदय देश में है तथा अश्विनीकुमार उसके दोनों पूर्वीय चरणों में हंै।