सद्गुरु से प्रीति

बाबा हरदेव

अब माता-पिता, पति-पत्नी, बेटा-बेटी यह सब आत्मीय संबंध नहीं हैं, यह तो शरीरों के संबंध हैं और इनमें फासले हैं। अतः शरीरों के संबंधों में केवल आदर हो सकता है। अब आदर और श्रद्धा में बहुत अंतर है। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति का आचरण बहुत अच्छा है, यह त्याग भावना रखता है, यह मिलनसार है, सबसे प्यार करता है, ईमानदार है, मानो कारण मौजूद है आदर के, अतः इसके प्रति हमारे दिल में आदर पैदा हो जाता है और फिर जब कोई कमी इसमें सामने नजर आती है, तो यह आदर भाव समाप्त हो जाता है। परंतु श्रद्धा तोड़ी नहीं जा सकती। श्रद्धा का अर्थ है अब मैं नहीं बस तू ही है।  वास्तव में श्रद्धा केवल सद्गुरु के प्रति होती है,क्योंकि शिष्य और सद्गुरु हृदय से जुडे़ होते हैं। प्रेम का जो परम रूप है वो श्रद्धा है। आध्यात्मिक जगत में श्रद्धा सबसे मूल्यवान तत्त्व है क्योंकि श्रद्धा जीवन में उसको खोजती है जिसका इशारा परमात्मा की ओर हो जबकि तर्क बुद्धि वह खोजती है, जिसका इशारा पमात्मा के विपरीत हो क्योंकि तर्क परमात्मा के विपरीत यात्रा है। श्रद्धा वर्तमान में देखती है जबकि तर्क भविष्य के विमुख है।  श्रद्धा प्रमाण नहीं मांगती जैसे गाय का बच्चा प्रमाण नहीं मांगता कि गाय के स्तन में दूध का पता चले तब वह गाय के स्तन को मुंह लगाएगा, इसी प्रकार जैसे कोई कहे कि प्रेम तब किया जाता है जब इसे प्रेम का प्रमाण मिले, जबकि सच्चाई यह है कि श्रद्धा के कारण ही प्रेम संसार में प्रफुल्लित है वरना प्रेम संसार से विदा हो गया होता। अतः जिसके पास श्रद्धा रूपी संपदा नहीं है उससे अधिक निर्धन और कोई नहीं है, श्रद्धा को सीखना नहीं पड़ता। श्रद्धा लेकर सभी पैदा होते हैं,पूर्ण सद्गुरु तो केवल श्रद्धा के द्वार से ही व्यक्ति के मन में भक्ति प्रवेश कर जाती है। अंत में श्रद्धा ही निष्कर्ष है और कोई निष्कर्ष नहीं है। श्रद्धा इस जगत में परम बोध है। श्रद्धावान व्यक्ति प्रतिपल निष्कर्ष में जीता है। यह कभी अधूरा नहीं है, यह सदा पूरा है, इसलिए यह जो भी करता है परिपूर्ण हृदय से करता है और जो भी परिपूर्ण हृदय से किया जाता है उससे आनंद उपलब्ध होता है।  श्रद्धावान मनुष्य व्यक्ति के लिए विनम्रता उसकी जीवन शैली बन जाती है।  जो कुछ हुंदे हो जाए भावें दिल नूं एहदे गम नहीं। जो कुछ हुंदे हो जाए भावें नाम बिना कोई कम नहीं।