अध्यात्म की यात्रा

 बाबा हरदेव

अध्यात्म की यात्रा अज्ञात की यात्रा है। यह एक ऐसी यात्रा है जिसमें आश्वासन होते ही नहीं और यदि भूलवश किसी प्रकार के आश्वासन दिए जाएंगे, तो यह यात्रा बाधित हो जाएगी क्योंकि आश्वासन से अपेक्षा पैदा हो जाती है और जहां अपेक्षा है वहां वासना है और जहां वासना है वहां प्रार्थना नहीं और जहां प्रार्थना नहीं वहां धार्मिकता का अभाव होता है। अतः विद्वानों का कहना है कि अध्यात्म में लोभग्रस्त आश्वासन नहीं, बल्कि लोभरहित परिपूर्ण कर्मण्यता अनिर्वाय है क्योंकि लोभ रहित परिपूर्ण कर्मण्यता फलाकांक्षा से मुक्त होती है। गुरसिख नूं नहीं इच्छा फल दी कर्म सदा निष्काम करे।

अब कर्म तो दोनों ही करते हैं तथाकथित लोभग्रस्त ज्ञानी भी, परंतु इन दोनों के कर्म में ब्रह्मा मौलिक भेद होता है। तथाकथित ज्ञानी की धारणा यह होती है कि कर्म तब किया जाए जब इसे कर्म से उत्पन्न होने वाली फलाकांक्षा का पूरा-पूरा आश्वासन दिया जाए,इसके विपरीत ज्ञानी की यह अटल धारणा होती है कि कर्म तो इसे हर हालत में करना ही है,लेकिन इस कर्म का फल परमात्मा पर छोड़ना आवश्यक है। अतः यदि तथाकथित ज्ञानी को लोभ और लालच का आश्वासन दिया जाए, तो इससे इसके मन में बड़ी कर्मठता तो पैदा हो जाती है परंतु इसकी फलाकांक्षा की पकड़ भी उतनी ही तीव्र हो उठती है क्योंकि तथाकथित ज्ञानी की दुनिया अपेक्षा पर आधारित होती है, मानो इसकी वृत्ति सदा व्यापारिक वृत्ति होती है।

अब यदि हम तथाकथित ज्ञानी की प्रतिदिन की मांग का पूरी तरह निरीक्षण करें तो हम पाएंगे कि प्रायः इसकी मांगें सांसारिक होती हैं,क्योंकि यह जो भी मांगता है,वो संसार का है, जहां तक कि जिन मांगों को यह धार्मिक मांगे कहता रहता है और जिनके प्रति आश्वासन चाहता है,वह भी सही मायनों में धार्मिक नहीं होती,क्योंकि फलाकांक्षा की पकड़ कभी इसका पीछा नहीं छोड़ती। उदाहरण के तौर पर तथाकथित ज्ञानी तथाकथित स्वर्ग मांगता है तो यह अपनी इंद्रियों की तृप्ति ही मांग रहा होता है,क्योंकि इसका तथाकथित स्वर्ग भी कल्पवृक्षों भरा होता है, इसके मन का बिंब होता है।  वास्तविकता तो यह है कि इसकी इस प्रकार की मांगों के प्रति आश्वासन ही है संसार आबद्ध इसलिए महात्मा फरमाते हैं कि इस संसार में तथाकथित ज्ञानी अपनी मांगों के प्रति आश्वासन इसलिए चाहता है ताकि यह अपनी मैं को सिद्ध कर सके कि इसके पास किसी भी चीज की कमी न रह जाए। हर समय लाभ के बारे में आश्वासन की भाषा लोभ की भाषा है और जहां तक लोभ की भाषा चलती है वहां तक लोभ चलता है और जहां तक लोभ चलता है वहां तक  क्षोभ होता ही रहेगा। दूसरी और ज्ञानीजनों का सदैव यह मत रहा है कि बीज तो बोया जाए, खाद आदि भी डाली जाए, पानी भी दिया जाए, वृक्ष को हरा-भरा रखा जाए, इसकी रक्षा भी की जाए,फिर भी इतना अवश्य ध्यान रखा जाए कि यदि वृक्ष को फल न आए, तो हम विषादग्रस्त न हों और यदि फल आए तो अहंकारग्रस्त न हों, अर्थात फल आए तो यह न कहने लगें कि देखो, हमने कैसे फल उगाए हैं।

अब वास्तविकता तो यह है कि हम वृक्ष को उगाने वाले नहीं हैं,उगाने वाला तो परमात्मा ही है। क्योंकि यदि हम उगाने वाले होते तो नीम के वृक्ष पर भी आम के फल लगा लेते और यदि फल न आए तो किसी प्रकार का गिला-शिकवा न करें और दुख का प्रदर्शन न करते रहें। हमने अपना परिश्रम पूरा किया,हमने कोई कसर न रखी, अब यदि फल नहीं आया, तो यह प्रभु की इच्छा है।