हमारे ऋषि-मुनि, भागः 17
तेज वायु चली, भयानक बादल गरजे, तेज बिजली चमकी, मूसलाधार वर्षा होने लगी। जल ही जल चारों ओर समुद्र का प्रचंड रूप कर दिया पूरा भूमंडल ग्रसित। सर्वत्र जल ही जल, पृथ्वी का नामोनिशान नहीं। आकाश, स्वर्ग, तारागण, सभी दिशांए पूरा त्रिलोक जलमग्न। अकेले मार्कंडेय पागलों की तरह इधर से उधर, बिखरी जटाएं, अंधे के समान दिशाहीन भागने लगे। बड़े-बड़े मगरमच्छ उनके शरीर को नोचने लगे…
भृगुकुल में हुए महर्षि मृकंडु। इनके पुत्र का नाम ही था मार्कंडेय। भिक्षा से अपने गुरु का तथा अपना निर्वाह करते थे। भक्ति इन्हें बहुत प्रिय थी। दस करोड़ वर्ष तक श्रीहरि की पूजा-आराधना की। इसी बल पर काल को भी जीत लिया। अब मृत्यु पर विजय थी। इस उपलब्धि से ब्रह्मा, शिव,भृगु तथा दक्ष व नारद आदि को बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने वैदिक ब्रह्मचर्य व्रत धारण किए रखा। भगवान अधोक्षज का ध्यान करते हुए छः मन्वंतर का काल बीत गया।
इंद्र को हुआ कुर्सी छिन जाने का भय
सातवें मन्वंतर में तब इंद्र को अपने पद छिन जाने का मार्कंडेय महर्षि से भय सताने लगा। उन्होंने कामदेव, वसंत ऋतु, अप्सरा, मद, लोभ, मलयानिल आदि को तप भंग करने के लिए तैनात कर दिया, किंतु उनकी एक न चली। पुष्पभद्रा नदी के तट पर मुनि के आश्रम में वे हर कोशिश करते रहे, मगर असफल हुए। महर्षि के तेज से वे ही भस्म होने लगे। अपनी जान बचाकर भागे। इंद्र के मनसूबों पर पानी फिर गया, बल्कि महर्षि मार्कंडेय के तप से श्रीहरि इतने प्रसन्न हुए कि नर तथा नारायण के रूप में दर्शन देने आ पहुंचे। महर्षि उनके चरणों में दंडवत प्रणाम कर धन्य हो गए।
वर मांगने को कहा
नारयण ने जब अपनी प्रसन्नता जताई तथा वर मांगने को कहा, तब महर्षि मार्कंडेय ने विनयपूर्वक उत्तर दिया नहीं, आपके दर्शन ही सब कुछ हैं। मैं इसी से संतुष्ट हूं। फिर भी आपकी जिस माया से यह सत वस्तु भेदयुक्त प्रतीत होती है, उस माया के दर्शन करवा दें। इतना सुन नर तथा नारायण तथास्तु कहकर बद्रीकाश्रम को प्रस्थान कर गए। ऋषि मार्कंडेय ने विभिन्न शक्तियों का जैसे अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, वायु, भूमि, जल, आकाश और आत्मा का विधिवत पूजन तथा श्रीहरि का ध्यान करना जारी रखा।
माया के दर्शन
श्रीहरि ने माया के दर्शन कराने शुरू कर दिए। तेज वायु चली, भयानक बादल गरजे, तेज बिजली चमकी, मूसलाधार वर्षा होने लगी। जल ही जल चारों ओर समुद्र का प्रचंड रूप कर दिया, पूरा भूमंडल ग्रसित। सर्वत्र जल ही जल, पृथ्वी का नामोनिशान नहीं। आकाश, स्वर्ग, तारागण, सभी दिशांए पूरा त्रिलोक जलमग्न। अकेले मार्कंडेय पागलों की तरह इधर से उधर, बिखरी जटाएं, अंधे के समान दिशाहीन भागने लगे। बड़े-बड़े मगरमच्छ उनके शरीर को नोचने लगे। हवा के जोरदार थपेड़े। शरीर जर्जर होता गया। शोक, मोह, भूख, दुःख की अनुभूति, कभी कुछ तो कभी कुछ। कभी मृत्यु के समान कष्ट। इसी प्रकार विष्णु की माया से मोहित महर्षि को समुद्र में भ्रमण करते हुए एक शंख वर्ष बीत गए। तभी अचानक एक पृथ्वी का टुकड़ा, उस पर फल पत्तों से लदा बड़ का छोटा पौधा उन्होंने देखा। इस बड़ के इशान कोण की एक शाखा पर पत्ते के दोने में एक तेजस्वी बालक दिखाई दिया। इस बालक के प्रकाश के कारण सभी दिशाओं में अलौकिक चमक व रोशनी हो गई। उसका पूरा श्याम शरीर आलोकित था। -क्रमशः
– सुदर्शन भाटिया