नागरिकता में हिंदू-मुस्लिम

नागरिकता संशोधन बिल अभी मोदी कैबिनेट ने मंजूर किया है। उसके प्रभावी कानून बनने तक की प्रक्रिया लंबी और पेचीदा है। बिल को हिंदू-मुसलमान के नाम पर या संवैधानिक, असंवैधानिक करार देते हुए अथवा पड़ोसी देशों के मुसलमानों को नागरिकता क्यों नहीं? इन सवालों पर देश दोफाड़ लगता है। अभी से पुतले जलाए जाने लगे हैं। हमने ‘देश’ का प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि इस मुद्दे पर संसद विभाजित दिखाई दी और संसद देश का ही सार-रूप है। नागरिकता कानून, 1955 से लागू है और उसमें स्पष्ट रूप से परिभाषित है कि किसे और किस तरह भारत की नागरिकता मिल सकती है। एक और अंतर स्पष्ट कर दें कि घुसपैठ और नागरिकता अलग-अलग स्थितियां हैं। देश में अवैध रूप से घुसे और यहीं बसे लोग ‘घुसपैठिए’ हैं,जबकि नागरिकता के लिए विधिवत तौर पर आवेदन भारत सरकार को करना पड़ता है। हमारे देश में तिब्बत, पाकिस्तानी हिंदुओं, श्रीलंकाई, अफगानिस्तान और म्यांमार आदि के लाखों शरणार्थी (घुसपैठिए नहीं) विभिन्न शिविरों में रखे गए हैं। उनमें पाकिस्तान से आए प्रताडि़त हिंदूवादी लोगों के शिविर ही करीब 400 हैं। ऐसे हिंदू,सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसी समुदायों को भारत सरकार नियमानुसार नागरिकता देना चाहती है। एक दलील यह भी है कि वे समुदाय मूलतः भारत का हिस्सा हैं, जिन्हें देश के विभाजन के बाद विस्थापित होना पड़ा। ऐसे हिंदूवादी समुदाय बांग्लादेश, अफगानिस्तान सरीखे देशों में भी हैं। उन्हें पुनः ‘भारतीय’ बनने का रास्ता क्यों रोका जाए? मुसलमानों को इस प्रावधान से बाहर रखा गया है, क्योंकि वे भारतीय नागरिक हैं, दूसरी सबसे बड़ी आबादी हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 17.22 करोड़ मुस्लिम हैं, अब तो यह संख्या 20 करोड़ को छू रही होगी। लिहाजा सहज सवाल है कि एक नागरिक ‘शरणार्थी’ कैसे हो सकता है? तो फिर नागरिक संशोधन बिल ‘सांप्रदायिक’ कैसे हुआ? इसके अलावा मुसलमान इस्लामिक देशों या मुस्लिम बहुल देशों में भी नागरिकता पा सकते हैं। हिंदूवादी समुदायों के लिए विकल्प बेहद कम हैं और वे घोर अल्पसंख्यक भी हैं। पाकिस्तान में ही आज की तारीख में मात्र 1.6 फीसदी हिंदू बचे हैं। जहां तक संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत ‘समानता के अधिकार’ का सवाल है, तो ऐसे मौलिक अधिकार देश के नागरिकों के होते हैं, शरणार्थियों के नहीं, घुसपैठियों के तो बिल्कुल भी नहीं होते। देश के मुसलमानों को उजाड़ने की कोई भी नीति ‘संवैधानिक’ नहीं होती। यहां याद दिला दें कि नागरिकता संशोधन बिल जुलाई, 2016 में भी लोकसभा में पेश किया गया, लेकिन अगस्त, 2016 में उसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेज दिया गया। जनवरी, 2019 में समिति की रपट आई। लोकसभा में मोदी सरकार का स्पष्ट बहुमत होने के कारण बिल पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा में बहुमत विपक्ष की ओर था, लिहाजा बिल लटक कर रह गया और उसके बाद लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो गया। अब संशोधन बिल को नए सिरे से संसद में पेश और पारित किया जाना है, लेकिन उसके पहले ही पाले खिंच गए हैं। कांग्रेस, तृणमूल, एनसीपी, राजद, सपा और वामपंथी दल आदि इसलिए भी बिल के खिलाफ हैं, क्योंकि उनकी सियासत मोदी और भाजपा विरोधी है। पाले सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर ही खिंचे हैं। इस मुद्दे पर कांग्रेस और एनसीपी की नई सहयोगी बनी शिवसेना मोदी सरकार के साथ है। इसके अलावा, बीजद, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस सरीखी तटस्थ रहने वाली पार्टियां भी मोदी सरकार के साथ हैं, लिहाजा संभावना है कि जिस तरह अनुच्छेद 370 वाला बिल राज्यसभा में पारित हो गया, उसी तरह नागरिकता संशोधन बिल भी पारित हो सकता है। घुसपैठियों को लेकर गृहमंत्री अमित शाह साफ तौर पर एलान कर चुके हैं कि एक-एक घुसपैठिए को चुन-चुन कर खाड़ी बंगाल में फेंकने का काम मोदी सरकार करेगी। यह 2024 के लिए चुनावी एजेंडा भी हो सकता है, क्योंकि इसकी समय-सीमा 2024 ही तय की गई है। यह सवाल बार-बार पूछा जाता रहेगा कि आखिर घुसपैठियों को कहां भेजा जाएगा? क्या बांग्लादेश या म्यांमार से बात की गई है? बेशक हिंदूवादी नागरिकता वाला मुद्दा ‘भावुक’ लगता है, लेकिन उसके लिए देश के संसाधनों, बसाने वाली जगह, आर्थिक बोझ, जनसंख्या आदि विषयों पर भी गहन चिंतन किया जाना चाहिए।