बाल मन को बहलाती पुस्तक

पुस्तक समीक्षा

स्वर्गीय डा. पीयूष गुलेरी के वार्षिक श्राद्ध पर गत दिनों उनकी एक साथ तीन पुस्तकों का विमोचन हुआ। साहित्य की इस अंतिम पूंजी को उनके परिजनों ने सहेजा और इन्हीं तीन पुस्तकों में से एक है ‘हमें बुलाती छुक-छुक रेल’। जीवन पर्यंत साहित्य की सेवा को समर्पित रहे डा. पीयूष का मन कैसे जीवन के अंतिम क्षण तक बालमय रहा, यही इस पुस्तक में हमें खजाने के रूप में उन्होंने उपलब्ध करवाया है। किताब के आमुख में उन्होंने लिखा है कि कैसे वे बचपन में शब्दों को छंदबद्ध करने लगे और कब सुघड़ बाल कवि के रूप में ख्यात हुए, पता ही नहीं चला। इसके पीछे वे अपने गुरु सोमनाथ सिंह ‘सोम’ को बहुत याद करते हैं। 70 कविताओं को उन्होंने संग्रहित किया है। अफसोस यही कि वे खुद पुस्तक का स्पर्श नहीं कर पाए। इसी का आभास वे ‘अपनी बात’ में यह कहते हुए करवाते हैं -‘आशा है भविष्य में कतिपय और बाल-काव्य संकलन प्रकाश में आएंगे, यदि प्रभु इच्छा हुई तो’। डा. पीयूष का बाल-मन कितना परिपक्व रहा होगा, यह प्रस्तुत कविता से जाना जा सकता है :

नेक बनके देख

शून्य, गोल गोल।

बोल, मीठे बोल।।

शून्य, एक एक।

नेक बनके देख।।

एक दो दो।

दीन बंधु हो।।

दो, तीन तीन।

कर्म में तल्लीन।।

तीन, चार चार।

सत्य तथ्य सार।।

तीन चार पांच

सांच को न आंच।।

चार पांच छः।

द्वेष में है क्षय।।

पांच छः सात।

मिश्री जैसी बात।।

छः सात आठ।

विनम्रता का पाठ।।

सात आठ नौ।

रहे न मन में भौ।।

आठ नौ दस।

निर्धनों में बस।।

— ओंकार सिंह