विवाद से परे है ईश्वर का अस्तित्व

आरंभ में उससे तत्काल लाभ दीखता है, पर वह बाहर का आरोपण देर तक नहीं ठहरता। भयंकर आपरेशनों के समय रोगी को अन्य व्यक्ति का रक्त दिया जाता है। वह शरीर में 3-4 दिन से अधिक नहीं ठहरता। शरीर यदि नया रक्त स्वयं बनाने लगे तो ही फिर आगे की गाड़ी चलती है। इसी प्रकार आरोपित स्राव अथवा रस ग्रंथियां तत्काल ही लाभ दिखाएंगी। यदि उस उत्तेजना से अपनी ग्रंथियां जाग्रत होकर स्वतः काम करने लगें तो ही कुछ काम चलेगा…

-गतांक से आगे….

यों ऐसे प्रसंग निजी और अप्रकट रूप में चलते तो रहते हैं, पर पिछली न्यायिक परंपराएं तोड़कर, जिन्हें कानूनी मान्यता मिली हो, ऐसे विवाह गत वर्ष ही सर्व साधारण के सामने आए हैं। काम-वासना को ही लें, पुराने जमाने में भस्में तथा रसायनें खिलाकर मृत या स्वल्प कामेच्छा को पुनर्जागृत करने का प्रयत्न किया जाता है। वह प्रयास भी नशे से उत्पन्न क्षणिक उत्तेजना जैसा ही सिद्ध हुआ। जब से हारमोन प्रक्रिया का ज्ञान हुआ है, तब से यौन ग्रंथियों के रसों को पहुंचाने से लेकर बंदर एवं कुत्ते की ग्रंथियों का आरोपण करने तक का क्रम बराबर चल रहा है। आरंभ में उससे तत्काल लाभ दीखता है, पर वह बाहर का आरोपण देर तक नहीं ठहरता। भयंकर आपरेशनों के समय रोगी को अन्य व्यक्ति का रक्त दिया जाता है। वह शरीर में 3-4 दिन से अधिक नहीं ठहरता। शरीर यदि नया रक्त स्वयं बनाने लगे तो ही फिर आगे की गाड़ी चलती है। इसी प्रकार आरोपित स्राव अथवा रस ग्रंथियां तत्काल ही लाभ दिखाएंगी। यदि उस उत्तेजना से अपनी ग्रंथियां जाग्रत होकर स्वतः काम करने लगें तो ही कुछ काम चलेगा अन्यथा वह बाहरी आरोपण की फुलझड़ी थोड़ी देर चमक दिखाकर बुझ जाएगी। अब तक के बाहरी आरोपण के सारे प्रयास निष्फल हो गए हैं। कुछ सप्ताह का चमत्कार देख लेने के अतिरिक्त उनसे कोई प्रयोजन सिद्ध न हुआ। सन 1876 में एक वृद्ध डाक्टर ब्राउन सेक्वार्ड ने घोषणा की कि उसने कुत्ते का वृषण रस अपने शरीर में पहुंचाकर पुनः यौवन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली है। 72 वर्षीय इस डाक्टर की ओर अनेक चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित हुआ और उन्होंने उनकी घोषणा को सच पाया, लेकिन यह सफलता स्थिर न रह सकी, वे कुछ ही दिन बाद पुनः पुरानी स्थिति में आ गए। इंग्लैंड के डाक्टर मूरे ने थायरोक्सिन का प्रयोग एक थायरायड विकारग्रस्त रोगिणी पर किया। दवा का असर बहुत थोड़े समय तक रहता था। कुछ वर्ष जीवित रखने के लिए एक-एक करके 870 भेड़ों की ग्रंथियां निचोड़कर, उसे आए दिन लगानी पड़ती थीं। इस पर धक्का-मुक्की करके ही उसकी गाड़ी कुछ दिन और आगे धकेली जा सकी।   

(यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)