स्वामी विवेकानंद

शक्ति की ही विजय

गतांक से आगे…

आधुनिक जापान की सर्वांगीण उन्नति से उनकी दृष्टि खास रूप से आकर्षित थी। स्वाधीन जापान ने कुछ ही वर्षों में एक अद्भुत प्रगति की थी। उन्हीं दिनों 40 करोड़ चीनियों के साथ युद्ध में मुट्ठी भर जापानी विजयी हुए थे। इससे उनके आत्मविश्वास और संगठन शक्ति की ही विजय घोषणा हुई थी। स्वामी जी ने कहा, इस बार चीन ने जापान के हाथों पराजय पाई है, किंतु फिर भी चीन एक विराट शक्ति के रूप में उभरेगा,साथ ही एशिया भी बहुत शक्तिशाली हो जाएगा। आज उनकी भविष्यवाणी चीन और एशिया के बारे में सच साबित हुई है। पाश्चात्य शैली ने आज सारी दुनिया को ध्वंस के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। इसके बारे में भी उन्होंने चेतावनी दी थी। मातृभूमि के बारे में सोच-सोचकर ही वह व्याकुल रहते थे। याकोहामा से उन्होंने अपने दक्षिण भारतीय शिष्यों को लिखा,जापानियों के बारे में मेरे मन में कितनी ही बातें उठ रही हैं,उन सबका वर्णन मैं इस पत्र में नहीं कर सकता। भारतमाता कम से कम एक हजार लोगों की बलि मांग रही है। याद रखो! मनुष्य चाहिए पशु नहीं।

तुम्हारी इस प्राणहीन शक्तिहीन सभ्यता को तोड़ने के लिए ही प्रभु ने अंग्रेजी राज को भेजा है। याकोहामा के जहाज के जरिए प्रशांत महासागर की नील जलराशि को पार कर स्वामी जी 15 जुलाई को कनाड़ा के बैंकुवर बंदरगाह पर उतरे। यहां से रेल द्वारा कैनेड़ा के बीच में से तीन दिन चलने के बाद शिकागो पहंचे। जो उनकी ख्याति को दिग-दिगांतों में फैला देगी, उसी नगर में वो आश्चर्यचकित तथा विस्मयविह्वल बालक की तरह इधर-उधर घूमने लगे। सड़क पर चलने वाले लोग इन्हें गेरुआ वस्त्र पहने देखकर घूरते थे तथा कई तो उन्हें सताने लगे। बालकों का दल भी उनकी हंसी उड़ाता हुआ पीछे-पीछे चलने लगा। स्वामी जी के लिए यह एक बड़ा विचित्र अनुभव था। धोखेबाजी और गिरहकटी तो बैंकुवर से उनके साथ चल रही थी। जो पैसा चाहता था, उन्हें ठगने का यत्न करता था। इसका कारण था रुपए-पैसे के मामले में स्वामी जी पूर्णतया अनभिज्ञ थे। कुलियों तक ने उन्हें लूटने के लिए कोई कसर न छोड़ी। आखिर में स्वामी जी एक होटल में चले गए और कम से कम उस दिन के लिए निश्चिंत हो गए। दूसरे दिन वो विश्वविद्यालय प्रदर्शनी देखने गए तथा पूरे दिन शिकागो में घूमते रहे। क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा अमरीका की खोज को 400 वर्ष पूरे हो गए थे, इस उपलक्ष्य में शिकागो में विश्वमेला आयोजित किया गया था। वहां चहल-पहल का तो पूछना ही क्या था। स्वामी जी को सब कुछ नया लग रहा था। पश्चिमी देशों की आर्थिक समृद्धि और कर्मकुशलता के बारे में उनकी धारणा कुछ धूमिल थी।

विज्ञान के कितने नए-नए आविष्कार हो गए हैं,कल कारखानों का कितना विकास हो गया है, यह सब उन्हें आज दिख रहा है। इसके साथ ही भारत की निर्धनता आदि की याद आते ही उनका हृदय वेदना से बेझिल हो उठता था। अगला दिन एक नई दुर्भावना को लेकर आया।                     – क्रमशः