हमारे ऋषि-मुनि, भागः 18 ऋषि मार्कंडेय

 गतांक से आगे…

उसने दाहिने पांव के अंगूठे को  हाथों में पकड़कर मुंह तक पहुंचाया और चूसने लगा। पूरा दृश्य अद्भुत व अलौकिक था। महर्षि रोमांचित हो उठे,करीब गए। बालक ने सांस ली। महर्षि उसके उदर में सांस के साथ जा पहुंचे। अब वह पूरे जगत को ऐसे ही देख रहे थे जैसे कि प्रलय से पूर्व विस्मित। तभी बालक ने जोर की श्वास छोड़ी। महर्षि उसक उदर से बाहर उसी जलमग्न पृथ्वी पर आ गए। सर्वत्र जल ही जल। समुद्र ही समुद्र। मगर बड़ का छोटा वृक्ष बालक सब दिखाई दे रहे थे। बालक मुस्करा कर मुनि को देख रहा था। मुनि आकर्षित होकर बालक के करीब गए, बाजू बढ़ाए। आलिंगन करने ही वाले थे कि वह अंतर्ध्यान हो गया। साथ ही बड़ का वृक्ष भी गायब हो गया। प्रलय पल भर में समुद्र में विलीन हो गया और मुनि अपने आश्रम में प्रलय से पूर्व की तरह स्थित हो गए। तब मुनि मार्कंडेय ने आंखों खोली। सब कुछ ठीक था। पृथ्वी, हरियाली,कुटिया,पशु-पक्षी का विचरण करना। मार्कंडेय मुनि ने माया को प्रणाम किया। नारायण ने जो तथाऽस्तु कहा था, वह सत्य दिखाया। वह हृदय से मायेश्वर का धन्यावाद करते नहीं थक रहे थे। बार-बार प्रणाम किए जा रहे थे।

जब भगवान शंकर तथा पार्वती साधु समागम में पहुंचे

एक अन्य आलौकिक घटना मार्कंडेय जी के जीवन में घटी। आकाशमार्ग  से भगवान शंकर तथा माता पार्वती उधर आए। उन्होंने महर्षि को ध्यानमग्न देखा, प्रसन्न हुए। पार्वती ने ही कह दिया हे प्रभु, आप किसके तप को सिद्ध करने वाले हैं। इस मुनि को भी सिद्ध प्रदान करें। तब भगवान शंकर ने कहा, यह मार्कंडेय महर्षि हैं। भगवान पुरुषोत्तम के अनन्य भक्त। इन्हें तपस्या के द्वारा कोई भी सिद्धि पाने की इच्छा नहीं है। इन्हें न सांसारिक सुख चाहिए, न ही मोक्ष की चाहत है। हां चलकर उनसे कुछ वार्तालाप कर लेते हैं। जानती तो हो कि साधु समागम से बढ़कर अन्य कुछ नहीं।

बाह्य ज्ञान लुप्त था, उस समय

भोलेशंकर तथा पार्वती ये दोनों महर्षि के करीब जा खड़े हुए। महर्षि की वृत्तियां ब्रह्म में लीन थीं। उनका वाह्य ज्ञान पूरी तरह से लुप्त था। उन्हें भगवान के आने का भी ज्ञान नहीं हुआ। तब भगवान शंकर ने अपनी योगशक्ति से मुनि के हृदय में प्रवेश किया। मुनि ने अपने शरीर में एक अद्भुत मगर विकराल मूर्ति देखी,वह चकित हुए। इसीसे उनकी समाधि टूट गई। देखा भगवान शंकर, पार्वती, नंदी बैल तथा उनके गण सामने खड़े थे। झुककर प्रणाम किया,पूजा की। तब भोले बाबा ने कहा, हम प्रसन्न हुए। मुंहमांगा वर पाने का अधिकार है,तुम्हें मांगो। तीनों देवादिदेव वर देने में सक्षम। अतः मांगो। तुम्हारे जैसे मुनिश्रेष्ठ के साथ संभाषण का सौभाग्य कभी-कभी ही मिलता है।

पाया वर

गद्गद् हो उठे मार्कंडेय महर्षि ने धन्यावाद स्वरूप कहा, आपके दर्शन हुए। क्या यह कम है मेरे लिए? फिर भी प्रभु मेरी भगवान में, उनके भक्तों में अनन्य भक्ति बनी रहे, ऐसी कृपा बनाए रखें। भगवान शंकर ने और भी प्रसन्न होकर कहा, भक्त तुम्हारी यह अभिलाषा पूर्ण हो। इस कल्प के अंत तक तुम्हारी कीर्ति अटल रहे। तुम अजर, अमर होकर रहोगे। तुम्हें त्रिकाल विषयक, ज्ञान-विज्ञान, वैराग्य और पुराणों को पूर्णरूपेण ज्ञान बना रहेगा। ऐसा आशीर्वाद देकर भगवान शंकर चले गए। मार्कंडेय तभी से चिंरजीवी के नाम से विख्यात हो गए।                 – सुदर्शन भाटिया