केजरीवाल की ‘मुफ्त’ गारंटी

दिल्ली विधानसभा का चुनाव नजदीक है, तो वायदों के पिटारे खुलने लगे हैं। उनकी घोषणाएं करते विभिन्न दलों के नेताओं को ढहती अर्थव्यवस्था की चिंता नहीं सताती। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो बाकायदा मुफ्त सेवाओं का गारंटी कार्ड भी जारी किया है। उनमें 20,000 लीटर पानी प्रति माह मुफ्त ही रहेगा। बिजली 200 यूनिट तक मुफ्त मिलेगी। अस्पताल सरकारी हो या निजी अस्पताल में जाना पड़े, बीमारी और इलाज का पूरा खर्च दिल्ली सरकार उठाएगी। महिलाओं के अलावा, छात्रों के लिए भी बस-यात्रा अब मुफ्त होगी। बुजुर्गों को मुफ्त तीर्थ-यात्रा कराने के लिए खुद मुख्यमंत्री ने ऐसे नागरिकों को सरकारी पत्र भेजा है। झुग्गीवालों के लिए सरकार वहीं मकान बनवा कर देगी, जहां अभी झुग्गी है। कच्ची अनधिकृत कालोनियों में सड़क, नाली, गली, पानी, सीवर और सीसीटीवी की सेवाएं भी निशुल्क मुहैया कराने का वादा किया गया है। दिल्ली में स्नातक तक शिक्षा भी लगभग मुफ्त है। सवाल यह है कि यह मुफ्त की राजनीति कब तक जारी रहेगी और चुनाव जीते जाते रहेंगे? इनमें से कोई भी सेवा ऐसी नहीं है, जो दिल्ली सरकार को मुफ्त मिलती हो। बिजली हिमाचल जैसे राज्यों से खरीदनी पड़ती है, पानी भी दिल्ली का अपना नहीं है, उसके लिए हरियाणा पर आश्रित रहना पड़ता है। उसके भी करोड़ों रुपए चुकाने पड़ते हैं। बिजली आजकल निजी कंपनियों के हाथों में है। तय है कि उसका बिल भी अदा करना पड़ता है। मकान बनवाने पर भी मोटी राशि खर्च होगी, लेकिन मुख्यमंत्री केजरीवाल का दावा है कि इतने विविध स्तरों पर सबसिडी देने के बावजूद दिल्ली सरकार मुनाफे में है। दरअसल दलील यह नहीं है। सवाल यह है कि एक तरफ  करदाता सरकारों को धन उपलब्ध कराता है, तो दूसरी तरफ  सरकारें खैरात बांटती हैं। यह मुफ्त की संस्कृति हमारी मानव-शक्ति को निकम्मा बना रही है। एक और राष्ट्रीय तथ्य गौरतलब है कि विभिन्न सरकारों ने बीते साल किसानों के 4.50 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा के कर्ज माफ  किए। उसके अलावा करीब 12.5 करोड़ किसानों को 6000 रुपए प्रति की सम्मान राशि बांटी गई। किसानों की कर्ज माफी का यह सिलसिला 2008 से जारी है। औसतन किसान पर इतना कितना कर्ज है कि बार-बार माफ करने के बावजूद वह यथावत बरकरार रहता है? क्या इससे अर्थव्यवस्था प्रभावित नहीं होती? सवाल है कि यह मेहरबानी सिर्फ  किसानों पर ही क्यों की जाती रही है? दूसरी पेशेवर जमातें भी हैं, जो गरीब और कर्जदार हैं। समाज को सेवाएं वे भी मुहैया कराती हैं। उनके कर्ज सरकारें इसलिए माफ  नहीं करतीं, क्योंकि वे एक संगठित और मजबूत वोट बैंक नहीं हैं। केजरीवाल ने भी मुफ्तखोरों को वोट बैंक में तबदील कर लिया है। पूछने पर औसतन 100 में से 95 दिल्ली वासी जवाब दे रहे हैं कि केजरीवाल ने बिजली, पानी सब कुछ फ्री दिया है, लिहाजा वोट उसे ही देंगे। यह कैसा लोकतंत्र है? राजस्व कम होगा या नगण्य होगा, तो राज्य कैसे चलेंगे और विकास के काम कैसे होंगे? मुफ्तखोरी की राजनीति करने वाले केजरीवाल अकेले राजनेता नहीं हैं। यह परंपरा कहां से और कब शुरू हुई, अब कहना मुश्किल है, लेकिन 1987 में हरियाणा में देवीलाल द्वारा शुरू की गई बुढ़ापा पेंशन और किसानों के लिए मुफ्त बिजली, पानी की सरकारी नीतियां याद आती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों में तो मुफ्तखोरी का आम चलन है। ऐसी घोषणाओं पर वोट भी मिलते हैं। दिल्ली के इस चुनाव में भाजपा ने वायदा किया है कि जो केजरीवाल देगा, हम उससे 5 गुना ज्यादा देंगे, लिहाजा भाजपा की सरकार चुनें। कांग्रेस ने 600 यूनिट तक बिजली मुफ्त देने की घोषणा की है। चूंकि ‘आप’ के मुकाबले भाजपा पिछड़ती लग रही है और कांग्रेस का नामलेवा तो न जाने कौन है? लिहाजा दिल्ली में केजरीवाल ने जो ‘मुफ्त गारंटी’ दी है, वह उसे दोबारा सत्ता के सिंहासन तक पहुंचा सकती है।