क्रूरता के दर्पण

क्रूरता के दर्पण में झांकते हिमाचल ने अब अपनी संस्कृति को अभिशप्त करना शुरू किया है। ऐसे किस्सों के न तो विराम हैं और न ही हम इनसे कोई सबक ले रहे हैं। अब पागलपन का एक दौर चंबा जिला में चला जब भूमि विवाद के आक्रोश ने एक अधेड़ व्यक्ति को सरेआम जलील ही नहीं किया, बल्कि मानवता के आदर्शों की होली भी जलाई गई। घर से खींचकर औरतों के एक समूह ने उक्त व्यक्ति के साथ गुंडागर्दी की, मुंह पर कालिख पोती और कमीज उतार कर जूतों की माला पहनाकर प्रमुख स्थान पर ऐसे कुकृत्य की बाकायदा नुमाइश लगाई। बेशक पीडि़त की शिकायत पर पुलिस ने पांच महिलाओं सहित सात लोग गिरफ्तार कर लिए, लेकिन घटनाक्रम ने प्रदेश के सामने कानून की चुनौतियां बढ़ा दी हैं। विवादों के हल अगर यूं ही गुंडागर्दी के आलम में ढूंढे जाएंगे, तो कल के अंधेरे निश्चित रूप से बढ़े होते देखे जाएंगे। यहां हिमाचल के टूटते संयम, घायल विवेक और अछूत होती संवेदना को देखा जा सकता है। यह वही हिमाचल है जो कभी मकानों को ताले के भीतर बंद नहीं करता था या गांव की चौपाल पर आपसी भाईचारे की मिसालें कायम की जाती थीं। हैरानी यह कि आपसी झगड़ों का खूंखार रुख अब समाज की बेचैनी नहीं बढ़ाता, बल्कि सोशल मीडिया की तफतीश में हम एक-दूसरे पर गंदगी फेंक कर बड़े हो रहे हैं। लोग जुर्म की परिभाषा से ऊपर कानून को पीट रहे हैं। मंडी की एक बेटी का वीडियो भी कुछ इसी तरह के दर्द को चित्रित करता है, जहां ससुराल पक्ष की दरिंदगी उन घावों में दर्ज है और पूरा समाज कसूरवार नजर आता है। बुजुर्ग राजदेई के आसपास हिमाचल का यही चरित्र अपनी कू्ररता का नंगा नाच रचता रहा था, तो अब रुह कंपा देने वाला अत्याचार हिमाचली बेटी के मर्म को घायल करता है। क्या कल तक देव शक्ति से चलने वाला समाज आज कानून को भी राख कर देने का माद्दा रखता है। क्या हम समाज नहीं बाहुबली हो गए और इसके लिए हमारी राजनीति व सामाजिक व्यवस्था का घालमेल ही दोषी है। दरअसल समाज के भीतर समाज तो है नहीं, बल्कि राजनीति के हर कुंभ में निजी स्वार्थ नहा रहे हैं। हमारी मानसिकता गंभीर परिणामों की तरफ पतन की राह पर अग्रसर है। समाज की इन्हीं तहों के भीतर राजनीतिक वर्चस्व दुबका है और इसलिए असहाय के खिलाफ षड्यंत्र दर षड्यंत्र अमल में लाए जा रहे हैं। चंबा की घटना में अधेड़ की चमड़ी पर पोती गई कालिख हो या मंडी की बेटी के शरीर से आत्मा तक को घायल करती करतूत हो, हिमाचल कहीं न कहीं खुद की चारित्रिक हत्या कर रहा है। यह सफेदपोशों की मंडी में नीलाम होती नैतिकता है, जो राजनीतिक वर्चस्व में अपराध के निशान मिटाने का दंश झेल रही है। बेशक घरेलू अपराध के वीभत्स दृश्यों का जिक्र से खून खौल जाता है, लेकिन हिमाचल के भीतर मिलीभगत से लुट रहे मंजर की शिकायत नहीं हो रही। एक ऐसा प्रदेश जो अपनी कंगाली में नागरिकों को अमीर बना रहा है। निरंतर कर्ज के बोझ में हिमाचल अपने नागरिकों की प्रति व्यक्ति आय बढ़ा रहा है, तो इस फलक के लबादे जब हटेंगे कोहराम मचेगा। हम चाहें तो चंबा के कोहराम में पांच औरतों के समूह की गुंडागर्दी में अपनी-अपनी भूमिका ढूंढ लें या मंडी की बेटी को मिले ससुराल के सुलूक पर आंखें भर लें, लेकिन सच यह है कि प्रदेश में इनसानों की बस्ती में अब शैतान घर कर गया। कानूनों को महज पैबंद की तरह ओढ़ना और अपने अहंकार या स्वार्थ के कारण तार-तार कर देना अगर हमारी हस्ती है, तो अपने आजू-बाजू खड़े अंधकार की परख करें। घर से बाहर गली में बिखरे रिश्तों को ढूंढें या अधिकारों की फेहरिस्त में लड़ने-झगड़ने का उन्माद पाल लें। हिमाचली समाज ने इनसान होने की सादगी और पहाड़ी होने की मर्यादा तोड़ दी है। उसे सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करने से राजनीतिक शक्ति मिलती है, तो समाज की सरहद पर मिट्टी की कद्र क्या होगी। ये इक्का-दुक्का उदाहरण नहीं, बल्कि अपराध से खेलने की क्षमता है जो एक नए रुतबे की तफतीश सरीखी भी, क्योंकि पुलिस से न्यायालय तक अंत में जीत-हार भी अब पैसे की मुठभेड़ है, जहां हर दबाव कमजोर होते संदर्भों को पीट रहा है।