छात्र आंदोलनों के संकेत

दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कालेज के छात्रों ने पढ़ाई का बहिष्कार किया और ‘आजादी’ की लड़ाई में सड़कों पर आ गए। यह करीब 30 सालों के बाद किया गया है। 1989 के दौर में मंडल आयोग रपट लागू करने के खिलाफ  छात्र आंदोलित हुए थे। सेंट स्टीफंस ऐतिहासिक कालेज है, जहां से महात्मा गांधी ने ‘असहयोग आंदोलन’ का आह्वान किया था। यह अभिजात्य और शिक्षित परिवारों के बच्चों का कालेज है, जहां औसतन छात्र 90-95 फीसदी अंकों के साथ उत्तीर्ण होते रहे हैं। जाहिर है कि वे शिक्षित हैं और जागरूक भी होंगे! दिल्ली विवि के कई कालेज आंदोलित हैं। पहली बार आईआईएम अहमदाबाद के छात्र भी सड़कों पर आए हैं। उनका अनुसरण आईआईएम बंगलुरू और आईआईटी खड़गपुर के छात्रों ने भी किया है। अंबेडकर और अशोका विवि के छात्र भी पहली बार विरोध-प्रदर्शन करने उतरे हैं। कर्नाटक में मैसूर यूनिवर्सिटी के छात्रों ने ऐसे कुछ नारे बुलंद किए कि 124 छात्रों पर देशद्रोह का केस दर्ज किया गया है। हैदराबाद, कोलकाता से लेकर डिब्रूगढ़ (असम) तक की  यूनिवर्सिटी के छात्र उबाल पर हैं। आंदोलित होने के ये संकेत सामान्य नहीं हैं। इनसे अलग एक धरना है, जो जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी की बगल के शाहीन बाग में जारी है। वहां ज्यादातर औरतें बीते 28 दिनों से रात-दिन धरने पर बैठी हैं। कुछ छात्र भी उनके साथ हैं। उनकी दलील है कि उनके पुरखे इसी देश में रहे और आजादी के लिए लड़े-मरे तो आज वे क्यों साबित करें कि वे भारतवासी हैं? दिलचस्प यह है कि इस आंदोलन का नेतृत्व कोई दल या नेता नहीं कर रहा है। सभी औरतें प्रधानमंत्री मोदी से ही मुखातिब हैं। आंदोलनों की यह स्थिति तब है, जब छात्रों और औरतों के सरोकार देश की ढहती अर्थव्यवस्था के प्रति नहीं हैं। विश्व बैंक का ताजा आकलन आया है कि 2020-21 में भारत की जीडीपी की विकास दर करीब 5.8 फीसदी हो सकती है, जो बांग्लादेश सरीखे छोटे देश की तुलना में भी कम होगी। छात्रों की चिंता महंगाई, रोजगार और भविष्य भी नहीं है। नागरिकता वाला मुद्दा भी धुंधलाने लगा है। नया मुद्दा जेएनयू के कुलपति को तुरंत प्रभाव से हटाने और अन्य पोस्टरों के साथ ‘फ्री कश्मीर’ का पोस्टर दिखाने का है। समस्या यहीं तक सीमित नहीं है, क्योंकि देश के अलग-अलग हिस्सों में छात्रों की हिंसक प्रवृत्ति भी सामने आई है। उनके जुलूसों में एक मृतप्रायः और अप्रासंगिक हो चुकी राजनीतिक विचारधारा के अहम चेहरे भी शामिल रहते हैं। लिहाजा विरोध-प्रदर्शन पूरी तरह छात्रों से जुड़े नहीं हैं। आंदोलन की आड़ में एक सियासी काडर तैयार किया जा रहा है। अब यह छात्र ही तय करें कि वे या तो यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं अथवा मुख्यधारा के राजनीतिक कार्यकर्ता हैं! दोनों भूमिकाएं साथ-साथ नहीं चल सकतीं। मौजूदा आंदोलित दौर पर देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एस.ए.बोबडे ने भी अपनी चिंता और सरोकार जताए हैं। उनका भी मानना है कि देश कठिन समय से गुजर रहा है। जब तक हिंसा नहीं रोकी जाती और शांति के प्रयास नहीं किए जाते, तब तक नागरिकता कानून की संवैधानिकता की समीक्षा नहीं की जा सकती। गौरतलब यह भी है कि देश में गिनी-चुनी यूनिवर्सिटी ही नहीं हैं। जेएनयू जैसे करीब 900 विवि हैं, जो भारत सरकार की सबसिडी पर चलते हैं। हजारों दूसरे विश्वविद्यालय और कालेज भी हैं। उनमें 20 करोड़ से ज्यादा छात्र पढ़ते हैं। उनकी तुलना में मुट्ठी भर छात्र ही सड़कों पर हैं, लेकिन सवाल है कि इतनी छात्र-शक्ति भी आंदोलित क्यों है? केंद्रीय विवि में फीस और हास्टल के खर्चे नगण्य हैं। ये संस्थान पढ़ाई के लिए हैं और 99 फीसदी से अधिक बच्चे पढ़-लिख कर अपना भविष्य तय करना चाहते हैं। छात्र-शक्ति अनियंत्रित भी हो सकती है। प्रधानमंत्री मोदी और मौजूदा सरकार को भूलना नहीं चाहिए कि उन्हें दो बार जो जनादेश हासिल हुआ है, उसके पीछे छात्रों और युवाओं का प्रबल समर्थन रहा है। प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार के तहत विवि में जा सकते हैं, तो अब छात्रों की समस्याओं को संबोधित क्यों नहीं कर सकते? प्रधानमंत्री को ही आंदोलित जमात के पास जाना चाहिए और उनकी भ्रांतियों के हल देने चाहिए। उसके बिना माहौल शांत नहीं हो सकता।