ज्ञान का अभाव

श्रीराम शर्मा

ज्ञान और विज्ञान यह दोनों सहोदर भाई हैं। ज्ञान अर्थात चेतना को मानवी गरिमा के अनुरूप चिंतन तथा चरित्र के लिए आस्थावान बनने तथा बनाने की प्रक्रिया। यदि ज्ञान का अभाव हो तो मनुष्य को भी अन्य प्राणियों की भांति स्वार्थ परायण रहना होगा। उसकी गतिविधियां पेट की क्षुधा निवारण तथा मस्तिष्कीय खुजली के रूप में कामवासना का ताना-बाना बुनते रहने में ही नष्ट हो जाएंगी। मनुष्य भी एक तरह का पशु है। जन्मजात रूप से उसमें भी पशु, प्रवृत्तियां भरी होती हैं। उन्हें परिमार्जित करके सुसंस्कारी एवं आदर्शवादी बनाने का काम जिस चिंतन पद्धति का है, उसे ज्ञान कहा गया है। गीताकार का कथन है कि ज्ञान से अधिक श्रेष्ठ और पवित्र अन्य कोई वस्तु नहीं है। ज्ञान वह अग्नि है, जो सड़े-गले उबले लोहे को अग्नि संस्कार करके मांडूर भस्म-लौह भस्म आदि अमतोपम गुण दिखा सकने योग्य बनाती है। पतित, पापी, मूढ़, पशु, महामानव, ऋषि आदि की काया एक ही तरह की होती है। उनकी बनावट और रहन-सहन पद्धति में कोई अंतर नहीं होता। फिर जो एक को गया गुजरा और दूसरों को आकाश में छाया देखते हैं। वह उसकी ज्ञान चेतना का ही चमत्कार है। यदि यह ज्ञान पवित्र, श्रेष्ठ और उत्साहवर्द्धक हो, तो वही शरीर ऐसा काम करते हुए दिखाई देगा, जिनसे असंख्यों को प्रेरणा मिले और उसका अनुगमन करने वालों के लिए भी प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो। ज्ञान आंतरिक जीवन से संबंधित है और वह चेतना क्षेत्र में प्रभावित करके उचित-अनुचित का अंतर करना सिखाता है। दूरदर्शी विवेकशीलता के आधार पर जो निर्णय या निर्धारण किए जाते हैं, उन्हें ज्ञान का, सद्ज्ञान का ही अनुदान कहना चाहिए। ज्ञान का सहोदर है विज्ञान। विज्ञान अर्थात पदार्थ ज्ञान। हमारे चारों ओर अगणित वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं। वे अपने मूलरूप में प्रायः निरर्थक जैसी हैं उन्हें उपयोगी बनाने और उनकी विशेषताओं को समझने की प्रक्रिया विज्ञान है। विज्ञान ने मनुष्य को साधन संपन्न बनाया है। अन्य प्राणी इस जानकारी से रहित हैं इसलिए वे निकटवर्ती आहार को उपलब्ध करने में ही अपनी क्षमता समाप्त कर लेते हैं। यौवन की तरंग मन में उठने पर वे प्रजनन कृत्य में भी अपना विशेष पुरुषार्थ प्रदर्शित करते देखे जाते हैं। यह प्रकृति प्रदत्त शरीर के साथ मिलने वाली स्वाभाविकता है। उन्हें विज्ञान नहीं मिला। विज्ञान केवल मनुष्य की विशेष उपलब्धि है। आग जलाना, कृषि, पशुपालन, वास्तुशिल्प, भाषा, चिकित्सा आदि एक से एक बढ़कर जानकारियां उसने प्राप्त की हैं और उनके सहारे साधन संपन्न बना है। कभी विज्ञान की परिधि छोटी थी और उसके सहारे जीवनोपयोगी वस्तुओं तक का ही उत्पादन एवं प्रस्तुतीकरण होता था, पर अब बात बहुत आगे बढ़ गई और प्रकृति ने अनेकानेक रहस्य खोज निकाले हैं। इतना ही नहीं वरन इससे भी आगे बढ़कर दूसरों के साधन छीनने वाले, उन्हें असमर्थ बनाने वाले प्राण घातक अस्त्र-शस्त्र भी बनने लगे हैं। जिस विज्ञान से सुख साधनों की वृद्धि का स्वप्न देखा जाता है, वही यदि विनाश या पतन की सामग्री प्रस्तुत करने लगे, तो आश्चर्य और असमंजस की बात है। आज ज्ञान और विज्ञान दोनों ही अपनी प्रौढ़ावस्था में हैं। विडंबना एक ही है कि वे सीधी राह चलने की अपेक्षा उल्टी दिशा अपना रहे हैं और एक दूसरे का सहयोग न करके विरोध का रूख अपनाए हुए हैं और तरह-तरह के दांव-पेचों का आविष्कार कर रहे हैं। इन गतिविधियों से वह धारा अवरुद्ध हो गई, जो अब तक मनुष्य को समर्थ और सुखी बनाती रही है।