बच्चे दो ही अच्छे

हमारे देश की आबादी फिलहाल 137.38 करोड़ है और यह हर पल बढ़ रही है। चीन के बाद भारत का ही स्थान है, लेकिन 2050 तक यह समीकरण बदल सकता है। हम औसतन हर महीने यूरोप का एक छोटा देश पैदा कर रहे हैं। जब 2021 में हमारी जनगणना होगी, तो वह 140 करोड़ को छू सकती है। क्या यह सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय संकट नहीं है? विश्व की करीब 18 फीसदी आबादी भारत में बसती है, जबकि हमारे हिस्से की जमीन करीब 2.5 फीसदी जल संसाधन करीब 4 फीसदी हैं और हम करीब 20 फीसदी बीमारियों का बोझ ढो रहे हैं। यह भविष्य की एक वीभत्स तस्वीर है। कृपया नेतागण अपने आंकड़े दुरुस्त कर लें, क्योंकि उनकी सुई 125-130 करोड़ पर ही अटकी है। लिहाजा उन्हें संकट का विकराल चेहरा महसूस नहीं होता होगा! दरअसल यह समस्या 1970 के दशक से ही गंभीर हो गई थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘हम दो, हमारे दो’ के नारे के साथ परिवार नियोजन कार्यक्रम की शुरुआत की थी। आपातकाल के दौरान देश के कई हिस्सों में जबरन नसबंदी की गई थी, जिसके नतीजे सरकार और कांग्रेस को भुगतने पड़े। उसी दौर में चीन ने ‘एक बच्चा’ सरकारी नीति की घोषणा ही नहीं की थी, बल्कि इस सीमा को लांघने वालों के लिए कड़ी सजाएं भी तय की थीं। नतीजतन चीन ने करीब 60 करोड़ आबादी बढ़ने से बचाई। आज वह दुनिया का दूसरा सबसे ताकतवर और सम्पन्न देश है। आज चीन दो बच्चों तक की छूट भी दे सकता है। हमारे यहां सरसंघचालक मोहन भागवत के बयान के बाद यह विमर्श शुरू हुआ है कि जनसंख्या को प्राथमिकता के आधार पर नियंत्रित किया जाना चाहिए। बेशक आप संघ प्रमुख का सुझाव न मानें और सवाल करें कि उनकी संवैधानिक हैसियत क्या है? लेकिन बढ़ती आबादी ऐसी समस्या बन गई है कि चौराहे पर फटे कपड़े पहने कोई भिखारी भी यह विमर्श शुरू कर सकता है, क्योंकि वह भारत का सम्मानित नागरिक है। यह बहस राजनीतिक नहीं, हमारे अस्तित्व और धुंधले भविष्य से जुड़ी है। कृपया इसे हिंदू-मुसलमान भी मत बनाइए, क्योंकि आपदाएं धर्म, जाति, लिंग देखकर नहीं आया करती हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक अध्ययन-रपट के मुताबिक, 2027 में ही भारत की आबादी चीन की आबादी को पार कर जाएगी और 2050 तक आबादी 163 करोड़ तक पहुंच सकती है। इतनी आबादी की बुनियादी जरूरत के तौर पर भरपेट खाना कहां से आएगा? रपट कहती है कि इतनी आबादी के मद्देनजर हमें 54 लाख टन सालाना खाद्यान्न पैदा करना होगा, जबकि अभी हमारी औसतन पैदावार 40 लाख टन के करीब है। हमारी आज के दौर की आबादी बढ़ोतरी दर करीब 2.3 है, जबकि 1951 में करीब 6.6 होती थी। यानी 6 बच्चों के बजाय अब 2 बच्चे ही पैदा किए जा रहे हैं। हमारा मानना है कि बच्चा एक ही पर्याप्त है, जो दांपत्य का प्रतीक है, लेकिन इसे कानून के जरिए नहीं, जन-जागृति और शिक्षा के माध्यम से प्रचारित किया जाए। कानून विवादास्पद हो सकता है और हिंदू-मुसलमान की तर्ज पर व्याख्याएं की जा सकती हैं, लेकिन अब वक्त आ गया है कि देश का हरेक नागरिक, स्त्री-पुरुष सावधान हो जाए कि बच्चे भगवान की कृपा ही नहीं, वे मानव संसाधन ही नहीं, मानवीय इकाइयां भी हैं। उन्हें अच्छा पालन-पोषण, रोगमुक्त बचपन, घर, शिक्षा, रोजगार और अंततः एक बेहतर जीवन भी चाहिए। हमारे ही देश में तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और पंजाब आदि राज्य हैं, जिनकी प्रजनन दर बहुत कम है, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे देश के दो सबसे बड़े राज्यों में विस्फोटक स्थिति है। 11 ऐसे राज्य हैं, जहां सीमित कानून हैं। वे पंचायत, स्थानीय निकाय तक ही लागू हैं। इनकी सदस्यता भी गई है और चुनाव के अयोग्य भी घोषित किए गए हैं, लेकिन संसद के दोनों सदनों के सांसदों और विधायकों के लिए कोई भी कानून क्यों नहीं हैं? इसे विडंबना कहें या कुछ और कह लें, लेकिन संसद में आज तक इस विषय पर बिल तक पेश नहीं किया गया। हालांकि कुछ प्राइवेट मेंबर बिल जरूर पेश किए गए हैं, लेकिन सभी उनकी महत्ता और वैधानिकता जानते हैं। बहरहाल यह एक बम है, जो टिक-टिक कर रहा है और अपने तय वक्त पर फट सकता है, लिहाजा इसे निष्प्रभावी करने की कोशिशें अभी से शुरू की जानी चाहिए।