महावारी छुआछूत एक अभिशाप

शेर सिंह

लेखक, कुल्लू से हैं

माहवारी के दौरान ऐसी महिला को घर के खुड्ड, यानी पशुओं के बाड़े में पशुओं के साथ रहना पड़ता है। खाना भी वहीं और सोना भी वहीं। यानी मानव और मवेशियों का साथ! ऐसी स्थिति में यदि किसी महिला का छोटा बच्चा, जो मां के दूध पर निर्भर हो, उसे दूध पिलाने के लिए मां के पास लाया जाता है। गर्मियों अथवा अच्छे मौसम के दौरान महिलाओं को इन दिनों में कोई अधिक परेशानी या शारीरिक कष्टि का एहसास नहीं होता होगा? लेकिन सर्दियों में जब बर्फ  पड़ी हो, कड़ाके की ठंड हो, तो ऐसे में भांड़े बाहर बैठी युवती अथवा महिला का क्या हाल होता होगा? इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है…

युवा बहू घर के निचले हिस्से में बनाए खुड्ड में गाय-बैलों को बांधने की जगह एक किनारे अंगीठी रूपी अलाव के पास बैठ कर आग तापते हुए, अपने को बाहर पड़ रही कड़ाके की ठंड से बचाने का भरसक प्रयास कर रही थी। दूसरे कोने में खूंटे से बंधी गाय नीचे बैठी हुई, मौन जुगाली कर रही थी। परिवार के अन्य  सदस्य भी घर के ऊपर की मंजिल में बैठकर सर्दियों की ठंडक से बचने की कोशिश में अंगीठी, तंदूर जला कर आग ताप रहे थे। घर के सदस्यों को बहू के बारे पता था कि वह खुड्ड में गाय के साथ है। पंद्रह दिन पहले घर की बीस वर्षीय बेटी भी ऐसे ही खुड्ड में बैठी हुई थी। बहू को अब तीन-चार दिन ऐसे ही खुड्ड में सोना, जागना, रहना-सहना, खाना-पीना पड़ेगा। दिन के समय बाहर के कार्यों, जैसे खेतों में घास छांटना, काटना, लकड़ी छीड़ी लाना, गाय-बच्छु को चराना इत्यादि कर सकती थी, लेकिन नल या बावड़ी से पानी आदि लाने का मतलब ही नहीं था। खाना आदि घर के दूसरे लोग नीचे लाकर उसे दे देते हैं। वह अंदर का काम अब ऊपर की मंजिल में जाने के बाद ही कर सकेगी। ऊपर जो कुछ उल्लेख किया गया है, यह कोई कहानी, किस्सा नहीं है, बल्कि समाज में प्रचलित रीति-रिवाज है। यह रीति-रिवाज देश के लगभग सभी क्षेत्रों में व्याप्त है, लेकिन अलग-अलग रूप और प्रकार में है। ये पहले ही प्रचलन में थे, और आज भी हैं। अन्य क्षेत्रों में इस रीति-रिवाज का प्रचलन अब समाप्त सा हो गया है, लेकिन पहाड़ों में विशेषकर हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, मंडी जिलों में आज भी पूरी शिद्दत एवं सामाजिक स्वीकृति सहित प्रचलन में है। इस मान्यता अथवा रीति-रिवाज, सामाजिक-धार्मिक नजरिया,  सोच, आचरण को ‘भांड़े बाहर’ कहते हैं। भांड़े बाहर का मतलब है रसोईघर के बरतनों को नहीं छूना। यानी घर की जवान महिला मासिक धर्म से है। हर माह प्राकृतिक प्रक्रिया, माहबारी के दौरान घर की किशोरी, युवा अथवा अधेड़ महिला को तीन-चार दिनों के लिए घर की ऊपर वाली मंजिल पर जाने की मनाही होती है। फिर वह चाहे घर की मालकिन अथवा इकलौती महिला ही क्यों न हो! ऐसी  महिलाएं जिन पर रसोईघर में परिवार के सदस्यों हेतु खाना-भोजन बनाने, पकाने की जिम्मेदारी होती है, उनका इन विशेष दिनों में रसोईघर में प्रवेश करने का सवाल ही नहीं उठता है। खाना बनाना, पकाना  तो बहुत दूर की बात है ! इस अवधि के दौरान उसे जूठ यानी जूठा मानते हैं। उसके हाथ का छुआ खाना भी नहीं खाते हैं। छुआछूत, अशुद्ध मानते हैं।

हर रजस्वदला महिला को इस सामाजिक व्यावस्थी के अनुसार चलना पड़ता है। पूरे जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में यह एक सामाजिक व्यावस्थी, आस्था, शुचिता के तौर पर सर्वमान्य है। स्वीकार्य है। माहवारी के दौरान ऐसी महिला को घर के खुड्ड, यानी पशुओं के बाड़े में पशुओं के साथ रहना पड़ता है। खाना भी वहीं और सोना भी वहीं। यानी मानवी और मवेशियों का साथ! ऐसी स्थिति में यदि किसी महिला का छोटा बच्चा, जो मां के दूध पर निर्भर हो, उसे दूध पिलाने के लिए मां के पास लाया जाता है। छोटे बच्चों को इस अवधि के दौरान मां का दूध पिलाना जूठ नहीं माना जाता है। गर्मियों अथवा अच्छे मौसम के दौरान महिलाओं को इन दिनों में कोई अधिक परेशानी या शारीरिक कष्टि का एहसास नहीं होता होगा? लेकिन सर्दियों में जब बर्फ  पड़ी हो, कड़ाके की ठंड हो, तो ऐसे में भांड़े बाहर बैठी युवती अथवा महिला का क्या हाल होता होगा? इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है! भांड़े बाहर बैठी ऐसी महिलाएं तीन-चार दिनों के बाद नहा-धो कर अपने को स्वच्छ, शुद्ध करने के पश्चात ही घर के ऊपर की मंजिल में जा सकती हैं। किचन, रसोईघर का काम संभाल सकती हैं। पूजा कक्ष में जा सकती हैं। देवी-देवताओं में अधिक आस्था होने एवं छुआछूत के चलते कोई भी महिला इस तथ्य को छिपाकर नहीं रख सकती है। खुड्ड में पालतू पशुओं के साथ रहने और सोने के कारण संक्रमण रोगों का खतरा पैदा होने की बहुत संभावना रहती है।  ये रोग फिर गंभीर बीमारियों के रूप में परिवर्तित होकर जीवन के लिए चुनौती बन सकते हैं। मासिक चक्र महिलाओं का बेहद निजी और अत्यंत संवेदनशील विषय है। इसमें किसी का हस्तक्षेप उचित नहीं है, लेकिन अज्ञानता, पुरातनपंथी, सड़ चुकी सोच का बदलना बहुत जरूरी है। प्रदेश सरकार व जिला प्रशासन को इस प्रथा तथा इसके प्रचलन की पूरी जानकारी है। महिलाओं को खुड्ड में मवेशियों के साथ रखने या रहने की इस प्रथा, कुप्रथा को समाप्त करने हेतु सरकारी स्तर पर कई कदम उठाए गए हैं। नुक्कड़ नाटकों, प्रौढ़ शिक्षा सामग्रियों, पोस्टर, बैनर, हॉर्डिग्ंस के माध्यम से इसे महिलाओं के साथ अन्याय, अत्याचार मानकर इसे समाप्त करने हेतु प्रशासन लगातार अपील करता आ रहा है । सरकार द्वारा किए जा रहे इन प्रयासों एवं कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं की पहल से संभव है, इस प्रथा में कुछ बदलाव आया भी होगा? ऐसी मानसिकता विकसित होने एवं मान्यता को बदलने में दशकों लग जाएंगे। फिर भी सवाल पैदा होता है कि महिलाओं को इस कुदरती शारीरिक क्रिया-प्रक्रिया के कारण परिवार, समाज से जो अवांछित कष्ट, तकलीफ, यंत्रणा झेलनी पड़ती है, उसका कभी निराकरण, निवारण हो पाएगा? चूंकि यह आस्था और विश्वास से जुड़ा हुआ मुद्दा है, इसलिए सार्वजनिक मान्यताओं की गहराई से समीक्षा एवं सहानुभूति के बिना इसका निदान संभव नहीं लगता है।  आत्म मंथन के साथ-साथ, तर्कसंगत विश्लेषण की बहुत आवश्यकता है। समय के साथ-साथ बहुत सी मान्यताएं बदल गई हैं, अथवा आधुनिक सोच के कारण उनका प्रभाव अधिक नहीं रह गया है। क्या इस प्रथा का चलन भी बंद हो पाएगा? विभिन्न विकृतियों को दूर करने हेतु सभी स्तर पर संस्कारित एवं तथ्य पूर्ण शिक्षा की बहुत जरूरत है।