युवा आफत में ऊना

सेना की खुली भर्ती के आलम में युवाओं के झुंड का विरोध प्रदर्शन, मानसिकता से बंदोबस्त तक की शिकायत है। ऊना में चक्का जाम कर युवाओं के बीच अनुशासन के स्तर को देखें या उस आफत का जिक्र करें जो बेरोजगार होने की खुली पड़ताल है। भर्ती के मोर्चे पर अपनी तैयारियों के साथ पहुंचे युवाओं को ऐसा क्यों लगा कि उनके साथ इनसाफ नहीं हो रहा, हालांकि अपनी प्रकिया के मानदंडों में सैन्य अधिकारी इससे इत्तफाक नहीं रखते और रिकार्ड के हिसाब से भी आरोप खरिज होते हैं। बेशक हजारों की तादाद में ऊना पहुंचे युवाओं के साथ सपनों की फौज भी चल रही होगी, लेकिन सफल-असफल होने के मानदंड पैनी नजर रखते हैं और इसीलिए ग्राउंड टेस्ट की क्षमता में मात्र बीस फीसदी ही सक्षम होकर बाहर निकले। सड़क पर युवाओं की आंदोलन क्षमता ने भले ही प्रशासन की आंखें खोल दीं, लेकिन सैन्य परीक्षा को उत्तीर्ण करने का न यह कोई तरीका और न ही जज्बा हो सकता है। हो सकता है युवाओं की मशक्कत काम न आई या भर्ती इंतजाम से कोई शिकायत रही हो, लेकिन रोजगार पाने के लिए कानून-व्यवस्था से छेड़छाड़ भी तो कोई रास्ता नहीं। हम खुली भर्ती के सैलाब में कई त्रुटियां देख सकते हैं और वहां हारती शिक्षा के मकसद को भी देख सकते हैं। मसला यह नहीं कि अचानक युवा सड़क पर आ गए, लेकिन यह उन सपनों का बिखराव है जिन्हें आधुनिक शिक्षा के सहारे बच्चे देख रहे हैं। दूसरी ओर हिमाचल सरकार के लिए भी इसमें संदेश स्पष्ट है। प्रदेश भर में न ऐसे स्कूल, न कालेज और न ही प्रशिक्षण केंद्र, जिनके मार्फत सैन्य, अर्द्ध सैन्य बलों या पुलिस भर्तियों के मानकों में हिमाचली युवा तैयारी कर सकें। विडंबना यह है कि शिक्षा की आधारभूत जरूरतों को नजरअंदाज करके हिमाचल में केवल सियासी प्रतीकों के रूप में शैक्षणिक संस्थान खड़े हो रहे हैं। केवल शिक्षा के द्वार बदले जा रहे हैं, जबकि मजमून उसी बासी माहौल में स्थापित हैं। ऊना में युवाओं को यातायात बाधित करते देखना हर उस हिमाचली अभिभावक की मजबूरी है, जो ऐसे झुंड में अपने बच्चे को भी देखता है। क्या ऐसा सब कुछ देखने की अनिवार्यता में सरकार कोई कदम उठाएगी, ताकि प्रतिस्पर्धा में असफलता के बावजूद युवा ऊर्जा सकारात्मक रहे। प्रदेश के शिक्षा मंत्री केवल शिक्षा में शिक्षा चुन रहे हैं यानी अब प्राथमिक शिक्षा के जाप में संस्कृत विषय का यज्ञोपवीत होगा। वह छात्रों में संस्कार रोपना चाहते हैं और यह सतत प्रक्रिया निरंतर चलनी चाहिए, लेकिन यहां रोजगार का भविष्य जिन विषयों को खोज रहा है, उस पर प्राथमिकता क्या है। क्या सैन्य भर्ती के लिए खड़े युवक को यह संदेश महत्त्वपूर्ण होगा कि अब शिक्षा के प्रमाण को संस्कृत भाषा पूरा करेगी या उसे प्रतिस्पर्धा के कठिन दौर में सरकार के विशेष प्रयत्न चाहिएं। आश्चर्य यह कि हिमाचल की तमाम कसरतें अब एक संस्कृत विश्वविद्यालय की मीनार खड़ा करना चाहती हैं, जबकि सरकारी स्कूलों के प्रांगण में एक अदद खेल का मैदान नहीं। प्रदेश की सैन्य पृष्ठभूमि के बावजूद यह नहीं सोचा जा रहा कि बच्चों को शारीरिक व मानसिक तौर पर ऐसे रोजगार के लिए कैसे तैयार किया जाए। संस्कृत के बजाय हिमाचली बच्चों को गीत-संगीत, खेल व सैन्य शिक्षा के उद्गम से मुलाकात कराई जाए, तो अनुशासन के आरंभिक शब्द स्कूल से ही सुदृढ़ होंगे। शिक्षा से उपाधि भले ही एक तरीका या औपचारिकता की परिभाषा ले सकती है, लेकिन इससे जुड़ी परायणता और प्रासंगिकता को समझना होगा। शिक्षा के सवालों से रू-ब-रू होते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शायद भागम भाग के माहौल से छात्रों की बेचैनियां दूर कर दें, लेकिन परीक्षाओं से इतर करियर में प्रवेश की अड़चनें युवाओं को असंतुलित कर रही हैं। बेशक हिमाचल के दस छात्र देश के सामने अपने प्रश्नों को रख पाएंगे या किसी को प्रधानमंत्री से सीधे पूछने का अवसर मिल जाए, लेकिन ऊना का सवाल इस समय सबसे बड़ा है। यह उस यथार्थ को टटोल रहा है, जहां पढ़-लिख कर भी अनिश्चितता के ग्रहण में  युवाओं के सामने सारे विकल्प एक-एक करके ढह रहे हैं। ऊना में संघर्षरत युवाओं ने न केवल सैन्य भर्ती के खिलाफ अपना संतुलन खोया, बल्कि यह इजहार किया कि मौजूदा दौर में उनकी क्षमता किस कद्र निरुत्साहित होकर बिखर रही है।