लोकार्पण अभी बाकी हैं डियर

अशोक गौतम

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सबसे पहले बीवी के ऋण से उऋण होने के लिए उन्होंने अपनी इधर-उधर से आधी मारी, आधी फाड़ी कालजयी किताब का लोकार्पण करवाया तो बीवी की उनके प्रति आस्था जागी कि वे भी कम से कम उसे पढ़ने लायक मानते हैं। वे लोकार्पण की फोटो सहित बीवी के साथ पहली बार घर से बाहर आए तो लोगों को पता चला कि ये भी उनकी बीवी हैं। और इसी के साथ बीवी के प्रति उनकी वचनबद्धता प्रतिबद्धता खत्म हुई। उसके बाद उन्हें अपनी सोसायटी के प्रधान हाथ लगे। उन्होंने अपने को सोसायटी में लेखक घोषित करते हुए उनसे भी किताब का लोकार्पण करवा उन पर अपना लेखकीय प्रभाव जमा डाला। सोसाइटी के प्रधान को तब पहली बार यह भी पता चला कि इधर-उधर मुंह मारने वाले जनाब लेखन में भी मुंह मार लेते हैं। अपने हाथों उनकी किताब का लोकार्पण कर सोसायटी के प्रधान गदगद हुए कि कम से कम उनके हाथों ने भी इस जन्म में किताब ने स्पर्श किया। किताब के लोकार्पण के अगले कदम के मारे किताब को ले सचिवालय जा पहुंचे। सबसे पहले परमादरणीय मंत्री जी के पास गए। मंत्री जी के पीए ने उनसे उनका झोला नापते हुए पूछा,‘क्या काम है?  ‘मंत्री जी से विमोचन करवाना था।‘ किसका? बीवी का, ‘नहीं, किताब का,’ ‘देखो, उनके पास बेकार के कामों के लिए समय नहीं है। कोई दूसरा काम हो तो बताओ।’ ‘आप कोशिश तो कर लीजिए। हो सकता है कि….. आखिर मंत्री जी के पीए ने मंत्री जी को फोन मिलाया,’ साहब कोई आया है’ ‘कोई लाया है? क्या लाया है?  ‘लाया नहीं साहब, कोई आया है। आपसे विमोचन करवाने को कह रहा है।‘ ’अंग्रेजी में बोल यार! कितनी बार कहा कि ये हिंदी-सिंदी हमारी समझ में नहीं आती।’ रिलीज करवाने को कह रहा है कुछ।‘ ‘तो भेज दो,‘ पीए का आदेश पाकर वे मंत्री के कैबिन में। मंत्री जी ने उन्हें घूरते हुए पूछा, ‘हूं तो किस पार्टी के लेखक हो? ‘जनाब ! जन्म से मात्र आपकी पार्टी का ही लेखक हूं।’ ‘गुड! हमें भी लगना चाहिए कि हमारी पार्टी में भी जन्मजात लेखक हैं, नेता हों या न! वरना यहां तो आजकल नेताओं की तरह लेखक भी अब विचारधारा बदलने लगे हैं।’ ‘जी नहीं! मेरे पास जब कोई विचारधारा ही नहीं तो बदलूंगा क्या? वे दोनों हाथ जोड़े बोले तो लेखक को अपने आगे झुका देख वे मंत्री जी से सीएम हुए। ‘निकालो’ क्या सर? ‘अपनी वह किताब जिसे हम रिलीज करने वाले हैं। हम भी तो देखें कि आखिर किताब होती क्या है? उसमें लिखा कैसे होता है? उन्होंने डरते-डरते किताब झोले से बाहर निकाली तो किताब के न चाहते हुए भी उन्होंने उसे एक बार फिर लोकार्पण को जैसे-कैसे तैयार कर दिया। किताब को हाथ में उलटते-पलटते मंत्री जी बोले, ‘गुड! गत्ता काफी अच्छा है। कागज भी सुंदर है। पर यार! स्याही फीकी है। न पढ़ने वालों को तो कोई प्राब्लम नहीं होगी पर जो गलती से किताब पढ़ने वाला कोशिश कर ही ले तो….’ ‘सर! अभी पहला संस्करण है, आपकी मेहरबानी हो जाए तो दूसरे संस्करण में सब…. ‘स्याही इतनी गाढ़ी लगवा दूंगा कि अंधा भी मजे से किताब के शब्दों पर सरपट भागे।’ मंत्री जी ने किताब का लोकार्पण किया तो किताब रोई पर वे धन्य हुए। किताब का लोकार्पण करने के बाद वे मंत्री जी को किताब देने लगे तो मंत्री जी बोले, ‘ले जाओ यार इसे। मैं जनसेवक भला ये किताब लेकर क्या करूंगा?’ ‘तो मंत्री जी अबके इस पर उरस्कार पुरस्कार वैगरह हो जाता तो…..‘कह वे सियाराए। ‘हो जाएगा! कोई चिंता नहीं। अपनी पार्टी के लेखक हो। अपनी पार्टी के लेखकों को तो हम बिन किताब के भी पुरस्कार देने की हिम्मत रखते हैं,’ उन्होंने मंत्री जी से पुरस्कार का आश्वासन लिया और किताब समेत बाहर आ गए। ….आखिर जब एक किताब सैंकड़ों के हाथों लोकार्पण, विमोचन करवाते करवाते फट गई तो एक दिन किताब ने उनसे दोनों हाथ जोड़े कहा, ‘प्रभु! अब तो मैं फटने को आ गई। अब तो ये लोकार्पण बंद करो तो….’ ‘अभी नहीं! अभी तो अकादमी के प्रधान के हाथों तुम्हारा लोकार्पण बाकी है। उसके बाद ज्ञानपीठ के प्रधान, फिर  कला अकादमी, फिर….’ राज्यपाल, फिर राष्ट्रपति….’ अभी लोकार्पण बाकी हैं डियर किताब…’ उन्होंने मदमाते कहा और अगला लोकार्पण किससे, कहां करवाया जाए, इस प्लानिंग में लीन तल्लीन हो गए।