अभिव्यक्ति के आईने में

अभिव्यक्ति, यानी अगर गहराई में जाएं, तो मन के भावों को स्पष्टता से प्रस्तुत करने का कौशल। उस पर, अभिव्यक्ति अगर एक ऐसे व्यक्तित्व की अनुभूतियों का संप्रेषण हो जिनकी जीवन यात्रा अनुभव बटोरने और समाजसेवा की गाथा सरीखी हो, तो फिर यह यकीनन खास हो जाती है। यहां हम जिस अभिव्यक्ति की बात कर रहे हैं, वह है हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ स्तंभकार और पत्रकार हरि सिंह कंवर के सम-सामयिक स्तंभ लेखों के संकलन का, जिन्हें एक पुस्तक का रूप देकर जागरूक पाठकों के लिए बाजार में उतारा गया है। ‘ अभिव्यक्ति’ शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत लेख कालांतर में समाचार पत्र के पृष्ठों पर वाहवाही बटोर चुके हैं, अतः इनका पुस्तक के रूप में पाठकों तक पहुंचना सराहनीय प्रयास कहा जाएगा। लेखक हरि सिंह कंवर लंबे समय तक सरकारी क्षेत्र में सेवाएं देने के साथ ही कर्मचारी नेता भी रह चुके हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने लेखन और समाजसेवा के क्षेत्र में अपने व्यक्तित्व को विस्तार दिया। ऐसे में उनके पास अनुभव का विशाल भंडार है। इसके साथ ही संवेदनशील प्रकृति और लेखन पर उनकी पकड़ विषयवस्तु को रोचक और सहज बनाए रखती है।

सम-सामयिक विषयों पर आधारित लेखों के अंत में उनके प्रकाशन की तिथि भी प्रकाशित की गई है, जो पाठक को अतीत के उसी कालखंड में ले जाती है। हर लेख की विषयवस्तु की तत्कालीन स्थिति और वर्तमान परिस्थिति के बीच वैचारिक तुलना एक मायने में यह मानक  भी उपलब्ध करवाती है कि हमने विकसित प्रदेश के रूप में सफलता के कितने सोपान तय कर लिए हैं। या फिर यह भी कि आगे बढ़ने के दावों के बीच हम कितनी दिक्कतों को बियाबान में सिसकने के लिए छोड़ आए हैं। पुस्तक का एक और उज्ज्वल पक्ष यह है कि सभी लेख हिमाचल प्रदेश की पीड़ा, अपेक्षाओं, आकांक्षाओं या उपलब्धियों पर आधारित हैं और ये हिमाचली जनमानस व यहां के समाज का आईना बनकर गुजरे वक्त के चेहरे से धूल झाड़कर कुछ यूं सामने लाते हैं कि हम उससे या तो कोई सरोकार खोज लें या फिर जान-पहचान बढ़ाने को पिछला पन्ना एक बार फिर से पढ़ डालें।

वरिष्ठ जनों की नई पीढ़ी के लिए सबसे बड़ी सौगात होती है अनुभव का दान। इस नजरिए से भी देखें तो हरि सिंह कंवर पूरी तरह सफल रहे हैं, क्योंकि उनकी अभिव्यक्ति नए खून को वह दिशा दिखाने में पूरी तरह सफल दिखती है, जिसकी उसे सबसे अधिक जरूरत है। और यह आवश्यकता है संवेदनशील होकर आसपास की आकांक्षाओं को समझने और उन्हें अभिव्यक्ति देने की काबिलियत पैदा करने की। कुल 304 पृष्ठों पर आधारित पुस्तक की छपाई संतोषजनक है और भाषागत अशुद्धियां भी नदारद हैं। कुल मिलाकर इसकी 400 रुपए कीमत अखरती नहीं है।

-अनिल अग्निहोत्री