आइए गद्दार बन जाएं

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

वे मुस्कराए और कहने लगे कि अगर जिंदगी खपा कर देशभक्त नहीं बन सके,तो एक बार गद्दार बन कर खुद को समझ लो। सो मुझे गद्दार मान लिया गया, हालांकि मैंने देश के संविधान को उनसे चुराके जेब मैं रख लिया था। पता नहीं कब किस गली में कोई देशभक्त मुझे पाकिस्तान भेज दे इसलिए सोचता हूं कि देश का वीजा कितना सस्ता हो गया। गद्दार होने की मेरी पहचान भी गजब की है। पहले अंग्रेजों ने मेरे होने को गद्दार मान कर सूली पर चढ़ाया और फिर यह आजाद भारत के सिलसिले में मेरा उपनाम बन गया। मेरे आसपास के वजूद में तन रही सियासत ने मुझे देश के हाशियों के बाहर जीना सिखाया। मुझे गरीबी रेखा के नीचे सरका कर पूछा गया कि तेरी औकात क्या है। ऐसे में मुझे नारे बजाने आ गए। गरीबी मिटाने के हर नारे का सबूत बन कर  मैंने अपने हिस्से का देश प्रेम खोजा,मगर सारी देश भक्ति तो खादी ले गई। मैंने स्वयं रेहड़ी पर इस्तरी करके नेताओं की खादी चमकाई ताकि उन जैसा देश प्रेमी हो जाऊं। वैसे चुनाव प्रचार में बंटी टोपी ने बार-बार हुलिया बदला,लेकिन मेरे सरोकारों को गद्दारी का वेश मिला। आश्चर्य तब हुआ जब मेरी टोपी को भी गद्दार समझ लिया और उस वोट को भी जिसे मैंने देश के लिए दिया था। यकीन करें हमारे जैसे लोग ही देश के लिए मतदान करते हैं, ताकि देशभक्ति के खिलाफ कोई तोहमत न लगे। हम लोग बदल-बदल कर राष्ट्र भक्ति में तल्लीन राजनीति को देश समझते हैं इसलिए हर बजट के बीच रुपए की तरह खुद को राष्ट्रीय कर्ज का कृतज्ञ मानते हैं। खैर भला हो इस बार के चुनाव का क्योंकि मुझे खुद को उछालने के लिए गद्दारी का सिक्का मिल गया। मैं वाकई गोली खाना चाहता हूं। अंग्रेजों ने कई बार गोली मारी, तो देश आजाद हुआ। आजाद देश में रहते हुए कभी अर्बन नक्सल, तो कभी खान मार्केट गैंग या अब तो मुझे देखते ही ‘टुकड़े-टुकड़े’ की आवाजें आने लगती हैं। मुझे फिर गोली मार दो, ताकि देश में ‘टुकड़े-टुकड़े’ न देखे जाएं। मुझे देख कर देश चीखने लगा है ‘गोली मारो…. के गद्दारों को।’ यकीन मानिए देश के असली गद्दार तो विदेश चले गए और जा रहे होंगे। आखिर इसी बजट से सौ नए हवाई अड्डों का निर्माण यही तो करेगा। मुझे ऐसे लोगों की  क्षमता पर पूर्ण भरोसा है कि न तो उन्हें सीबीआई पकड़ पाएगी और न ही सरकार लटका पाएगी। ऐसे में मेरा सुझाव तो यही है कि एक बार देश की खातिर ‘गद्दार’ बना जाए ताकि फिर गोली खाकर देश भक्ति का इजहार  हमारा खून करे जिसमें न कोई धर्म होगा और न ही राजनीति इसे छू पाएगी। वैसे भी हमारा खून तो यूं ही ठंडा है,क्योंकि हम अपने सामने नेताओं के बीच असली गद्दारों को देखकर भी मरे हुए इनसान ही तो हैं।