आत्म पुराण

गतांक से आगे…

मंत्र रूप यजुर्वेद उसके दक्षिण उत्तर दिशा की अल्प सूत्र मय पटियां हैं। उन सूत्रमय पटियों को सांसारिक जन नवारक कहते हैं। उस सभा में ब्रह्माजी अपनी दो पत्नियों प्रतिरूपा और मानसी के साथ विराजमान होते हैं। वे ब्रह्माजी सब देवताओं से बड़े हैं और इंद्रादिक देवता उनकी उपासना करते हैं। किसी समय प्रसंग उठने पर ब्रह्माजी कहने लगे जो वस्तु भमा नाम से प्रसिद्ध है और जो समस्त आत्मा पदार्थों में निरातिशय प्रीति का विषय है,उसी भमा को लोग आत्मा के नाम से कथन करते हैं और उसकी तुलना में जो अनित्य फल की प्राप्ति कराने वाला कर्म है उसे पाप्मा कहा जाता है। वह पाप्मा इस स्थूल सूक्ष्म भौतिक देह के आश्रित होकर रहता है,जबकि आत्मा का इन दोनों प्रकार की देहों से कोई संबंध नहीं है। वह आत्मदेव जरा, मरुण, शोक, मोह, क्षुधा, पिपासा इन षट ऊर्मियों से रहित है,क्योंकि यह सब स्थूल शरीर के धर्म हैं। इसी कारण श्रुति भगवती ने आत्मा को मृत्यु रहित,शोक रहित,क्षुधा रहित,पिपासा रहित आदि बतलाया है। ऐसा आत्मदेव अधिकारी पुरुषों को अवश्य जानने योग्य है। जब ब्राह्माजी ने इस प्रकार उपदेश दिया तब सभी देव और असुरों ने उसे सुना।

शंका- हे भगवन! जो देव और असुर अपने-अपने लोक में रहते हैं उन्होंने ब्रह्माजी के वचनों को किस प्रकार सुना?

समाधान- हे शिष्य! ब्रह्मा की सभा में देवता और असुर दोनों ही भाग लेते रहते हैं। ये दोनों प्रजापति की संतान हैं। असुर पहले उत्पन्न होने से ज्येष्ठ माने जाते हैं देवता पीछे हुए इससे कनिष्ठ कहे जाते हैं। यही कारण है कि असुर ब्रह्माजी  की दाहिनी ओर और देवता बायीं तरफ बैठते हैं। उन दोनों में इतना अधिक विरोध और वैर भाव है कि वे एक दूसरे को देख भी नहीं पाते। ब्रह्मा के मुख से मोक्ष रूपी साधन के लिए जो वचन निकलते हैं, सभा में उपस्थित असुर उनको अपने लोक के अन्य असुरों को बतला देते हैं और ऐसा ही देव करते हैं।

इन उपदेशों को सुनकर देवताओं के राजा इंद्र ने कहा कि यह आत्मज्ञान जब इतना महत्त्वपूर्ण विषय है, तो हमको यह प्रयत्न करना चाहिए कि हमारे शत्रु असुर इसको ग्रहण न कर सकें। उधर ऐसा ही विचार असुरों के अधिपति विरोचन ने भी प्रकट किया। उन दोनों ने अपने-अपने अनुयायियों के साथ सलाह करके यह निश्चय किया कि आत्मज्ञान ही सबसे बड़ी शक्ति है और उसके द्वारा हम सब प्रकार की सफलताएं सहज में पा सकते हैं, तो उसका ज्ञान ब्रह्माजी के पास जाकर ही प्राप्त करना चाहिए। सब देवताओं की तरफ से इंद्र असुरों में से विरोचन इस कार्य के लिए नियुक्त किए गए। संयोगवश वे दोनों एक ही समय ब्रह्माजी के स्थान में पहुंचे। उन दोनों के हृदय में एक दूसरे के प्रति बड़ा विरोध भाव था और वे नहीं चाहते थे कि हमारा उद्देश्य किसी विरोधी को मालूम पड़ जाए। पर अब जब वे एक दूसरे के सामने आ गए, तो बुद्धिमता पूर्वक एक दूसरे से बड़े प्रेम के साथ मिले। ब्रह्माजी भी उनके आंतरिक अभिप्राय और सर्वयुक्त मनोभाव को जानते थे।                               -क्रमशः