एक अच्छी कहानी से पाठक की अपेक्षाएं

साहित्यिक विमर्श

राजेंद्र राजन

मो.-8219158269

हिंदी कहानी लेखन की एक शताब्दी बीत जाने के बाद भी पाठक के मन में यह प्रश्न बार-बार कौंधता रहता है कि वह एक अच्छी कहानी को कैसे परिभाषित करे या उसकी व्याख्या इस प्रकार हो कि उसे कहानी पढ़ने के बाद लगे कि उसके जीवन में कोई नई खिड़की खुली है? यानी पाठक चाहता है कि वह कहानी को महज बौद्धिक रसास्वाद के लिए ही न पढ़े, अपितु कहानी उसके अंतर्मन को स्पर्श करने के बाद व्यापक फलक से जुड़े। कहानी के सामाजिक सरोकार हों और वह मनुष्य की सोच को परिष्कृत करने में कामयाब हो, उसे और अधिक संवेदनशील बनाए। किसी भी श्रेष्ठ साहित्य रचना से पाठक की यह अपेक्षा रहती है कि वह उसे आंदोलित करे और समाज को समझने में एक बेहतर विकल्प उपस्थित करे। हिंदी साहित्य में बहुत से लेखक मानते हैं कि साहित्य की उपयोगिता इस बात में निहित है कि उसमें वैचारिक परिप्रेक्ष्य निहित हो। शायद यही कारण है कि हिंदी साहित्य का विपुल भंडार ऐसे लेखकों की रचनाओं से भरा पड़ा है जो वंचित, शोषित और सताए हुए जनमानस के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। यह प्रश्न भी बार-बार उठाया जाता है कि शिल्प प्रधान कहानियां कंटेंट्स की उपेक्षा कर रही हैं और अनेक लेखक अपनी रचनाओं में ऐसे जादुई यथार्थ का निरूपण कर रहे हैं, जो अकसर बनावटी परिवेश का निर्माण करता है। इक्कीसवीं सदी की कहानी की क्या कोई अवधारणा बन रही है? क्या भाषा, शिल्प, कथ्य, अतर्वस्तु के मानकों में परिर्वतन देखे जा रहे हैं? यह प्रश्न भी विचारणीय है कि क्या मौजूदा सदी की हिंदी कहानी ने बीसवीं सदी की कहानियों को आउटडेटेड किया है? इन्हीं कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास इस लेख में किया गया है। अच्छी कहानी उसे कहा जा सकता है जो पाठक के मर्म को छू पाए, अंतस को झकझोर सके। उसे स्वयं की कहानी लगे। कहानी के पात्र लंबे समय तक या स्थायी रूप से ज़हन में रच-बस सकें। याद कीजिए चेखव की ‘ग्रीफ’ और प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानियां। गुलेरी की 105 साल पहले रची कहानी ‘उसने कहा था’ निश्छल प्रेम और त्याग की कालजयी रचना है जिसकी ताज़गी सदाबहार वृक्ष की मानिंद करोड़ों पाठकों के ज़हन में रची-बसी है। नए विषयों, नए जीवन संदर्भों को कहानी में ढालना जरूरी है।

सतत बदलते समाज में जीवन मूल्य भी बदल रहे हैं। आज हम न्यूक्लियर परिवार की अवधारणा में जी रहे हैं। संयुक्त परिवार परंपरा ध्वस्त हो चुकी है। इसने व्यक्ति के भीतर और बाहर एकांत ब सन्नाटे को जन्म दिया है। घोर प्रतिस्पर्धा का प्रतिफल अवसाद में हो रहा है। जिजीविषा की जंग में आदमी त्रस्त है। उसका सुख-चैन छिन गया है। रोज़मर्रा की चुनौतियों से कहानियों का जन्म होता है। स्त्री विमर्श के शोर में पुरुष पीड़ा छिप गई है। क्या उत्पीड़न केवल स्त्री का ही हो रहा है? पुरुष का नहीं? अतः एकतरफा लेखन प्रामाणिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाता। कहानी में वैचारिक बंधन की अनिवार्यता एक ़गलत अवधारणा है। इससे एजेंडा लेखन को बढ़ावा मिल रहा है। विचार तो रचना के भीतर सहज-स्वाभाविक रूप से गुम्फित होना चाहिए। उसे आरोपित कर रचना को बौना करने जैसा है। कहानी दिल बहलाने की चीज़ नहीं है, उससे बड़े सरोकारों की दरकार बनी रहती है। यह सही है कि आज भी निर्मल वर्मा के शिल्प व भाषा से प्रभावित या नकल कर लेखक कहानी में चमत्कार पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ लेखक जटिल शिल्प के बल पर लगातार प्रयोग कर रहे हैं, जो कहानी के मूल तत्त्व यानी कहन या बतकही या स्टोरी टेलिंग को तोड़ता है। कहानी में कथावस्तु का ज़ाहिर होना या दिखाई देना लाज़मी है। अच्छी कहानी को भाषा व शिल्प के अतिरिक्त व अवांछनीय दबावों से बचाना होगा, किंतु भाषा का सौंदर्य, लावण्य व बांध लेने की कला ही कहानी को पढ़वा लेने के लिए जरूरी तत्त्व भी हैं। प्रेमचंद, यशपाल, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, मन्नू मंजरी, कमलेश्वर आदि की अधिकांश कहानियां सशक्त कथानक व अंतर्वस्तु के बल पर ही महान बन पाईं। इक्कीसवीं सदी में कहानी बड़े सरोकारों से न जुड़ पाने के कारण कमजोर हुई है। रचना पर मीडिया का बेजा प्रभाव है। घटना का विवरण प्रस्तुत करना अच्छी कहानी नहीं बनाता। घटना की विसंगतियों से कहानी जन्म ले सकती है। आज की कहानी में ग्राम्य अंचलों की सूक्ष्म संवेदनाएं गायब हैं। किसानों की आत्महत्याएं, नक्सली हिंसा से उत्पन्न विकार, बेरोज़गारी, जल संकट और आम आदमी का डर, असुरक्षा के साये में सांस लेना कितने ही विषय हैं जो लेखक को परेशान नहीं करते। कहानियां सेक्स, हिंसा, अवसाद, मृत्यबोध व व्यक्तिगत कुंठाओं की अभिव्यक्ति कर रही हैं। यह सदी निराश कर रही है तो बीसवीं सदी कहानी के लिए धरोहर की तरह है जो कभी आउटडेटेड नहीं हो सकती। कहानी की विधा में आज बेशुमार लेखक हैं। यह सुखद तो है, लेकिन महान या कालजयी रचनाओं के सृजन के वास्ते इस विधा को मांजना इतना सहज नहीं है। बड़े श्रम की जरूरत है। अतः श्रेष्ठ की तलाश जारी है, इसे प्रतिशत में नहीं बताया जा सकता। युवा रचनाकारों से पाठक को हमेशा यह अपेक्षा रहती है कि वे रचनात्मक स्तर पर नई जमीन की तलाश करें और उन विषयों पर भी अपनी कलम चलाएं जो कहीं गहराई तक मनुष्य की संवेदना से जुड़े हुए हैं।