केजरीवाल की जीत कहां तक

अंतर यह एक जीत भर का नहीं हो सकता, बल्कि दिल्ली चुनाव परिणामों के अर्थ में यह देश खुद को टटोलेगा। बेशक भाजपा इसका गहन चिंतन करेगी, लेकिन अपनी भूमिका की कंगाली में कांग्रेस का आटा इतना गीला तो है कि इसे अपने शब्द और दृश्य बदल लेने चाहिएं। खैर शब्द और दृश्य तो इस बार भाजपा के ब्रांड को भी धोखा दे गए। शब्द के बोझ में कई नेताओं की नंगई को जनता ने नापसंद नहीं किया, बल्कि यह भी बता दिया कि भारतीय लोकतंत्र की मर्यादा को आम जनता कम से कम संसद के बाहर फिर से प्रतिष्ठित करना चाहती है और यह जान चुकी है कि अब नहीं सुधरे तो बड़ी देर हो जाएगी। दिल्ली न तो लोकतंत्र से दूर खड़ी हो रही है और न ही लोकतंत्र को अपने से दूर कर रही है। इस लिहाज से सारे पुरस्कार और संकेत केजरीवाल को महानायक बना रहे हैं। यह इसलिए भी कि जिस दिल्ली राज्य की शक्तियों पर केंद्र का दबदबा है और जिसकी सीमाओं पर भाजपा के नगर निगमों का कब्जा है, उसके भीतर केजरीवाल के सियासी विषय अचानक राष्ट्र स्तरीय को जाते हैं। जिस सरकार के प्रति जनसंवेदना सैलाब बन जाती है या केजरीवाल खुद एक मॉडल की तरह मुख्यमंत्री के दायित्व की कसौटी पर प्रिय चेहरा बन जाते हैं, उसे केवल चुनाव की परिधि या प्रचार की गहनता में नहीं पढ़ा जा सकता। जाहिर है कि दिल्ली के चुनाव परिणाम कई सींग खडे़ करेंगे और इसका घातक रुख सबक लिए हुए है। सीधे राजनीतिक तौर पर इसे युद्ध मानें या जनता के द्वंद्व के बीच हल्की सी आशा की किरण मानें, दिल्ली ने सर्वप्रथम जनता को साबित किया है। यह जनता न तो शाहीनबाग के जमावड़े से विचलित हुई और न ही बनते-बिगड़ते माहौल को अंगीकार करके किसी देव के अवतार में धर्म की लंगोटी पहनकर मतदान की पंक्ति में खड़ी रही। यह मतदाता के विवेक की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और स्पष्टता का मौलिक परिणाम है, जिसे कबूल करने के साथ-साथ राजनीतिक पाठ्यक्रम से जोड़ लेना चाहिए। अगर शोर और सियासी अपमान के दौर से भिन्न मतदाता ने कई चित्र मिटाए, तो इस परीक्षा का मतलब सारे देश को समझना है। लगातार तीसरी बार और चक्रव्यूह से बाहर निकलता इतना भी आसान नहीं था कि केजरीवाल केंद्र की दीवारों पर आसानी से अपने पोस्टर चस्पां कर पाए। यह असहज चुनाव की सहजता की पराकाष्टा है जिसे केजरीवाल इसलिए लिख पाए कि उन्होंने गिद्धों के झुंड के बावजूद गंदगी से परहेज किया। जनता से सीधे संवाद में भाजपा पिछड़ी, तो केजरीवाल का हुनर परखना होगा। कुछ तो रहा होगा जो चर्चा स्कूल-शिक्षा-स्वास्थ्य, विद्युत और जलापूर्ति के इर्द-गिर्द केजरीवाल की प्रशंसक बन गई या हिंदू-मुस्लिम की औकात में ‘आप’ के निशान भंग न कर सकी। जिन गलियों में आठ-दस मुख्यमंत्री घूमे, जहां दो-अढ़ाई सौ सांसद फेरी लगाते रहे, केंद्र सरकार के मंत्री हौसला बुलंद करते रहे या अमित शाह से नरेंद्र मोदी तक जहां चुनावी जंग लड़ी गई हो, वहां मतदान का ‘अमिट’ होना इस हार-जीत के अंतर को शाश्वत बनाता है। बहस और तर्क भले ही मीडिया को खिलौना बनाते रहे या इस दौरान खुद को ‘मांज’ रहा मीडिया कितने मुहावरे गढ़ता रहा, लेकिन जनता की तस्वीर को केवल एक ही फ्रेम में लटका नहीं पाया। इसलिए इस जीत का वर्णन ताजगी भरा है। यह विध्वंस से निकली सियासत से अलग उस बानगी में देखा जाएगा जहां उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक को भी गिरेबां में झांकना पड़ेगा। उस तमाम कदमताल और मेहनत का यह हाल क्यों हुआ, जो भाजपा ने दिल्ली को अपनी दिल्ली बनाने में की। क्या जनता को राज्यों में केजरीवाल पसंद है। क्या हर पार्टी को केजरीवाल ढूंढना पड़ेगा या सत्ता को केजरीवाल की तर्ज पर चलना पड़ेगा। जनता ने केजरीवाल सरकार को इतने अंक इसलिए दिए कि उसने अपनी मंशा को विकास की चारित्रिक ऊर्जा दी। बहरहाल तू-तू, मैं-मैं की खिचड़ी दिल्ली में नहीं पकी, तो ऐसे एहसास की पुनरावृत्ति में हिमाचल जैसे राज्य भी अपनी बिगड़ती सियासत को दुरुस्त कर सकते हैं। दिल्ली के समकक्ष खड़ा हिमाचली मतदाता भी काफी जागरूक है। ऐसे में जयराम सरकार यह कोशिश कर सकती है कि केजरीवाल की तरह अगला चुनाव भी सुशासन व विकास की बुनियाद पर जीता जाए। हिमाचल के सामने भाजपा और कांग्रेस की हार के सबक तो हैं ही, लेकिन सत्ता की सार्थकता में केजरीवाल सरीखे प्रयास शुरू करने होंगे। शिक्षा और चिकित्सा में गुणवत्ता, परिवहन सेवाओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन, जवाबदेह प्रशासन तथा सेवा क्षेत्र को चुस्त-दुरुस्त करने के नए उदाहरण पेश करने होंगे, ताकि केजरीवाल की परछाई में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा सकारात्मक हो जाए।