गीता रहस्य

स्वामी रामस्वरूप

श्रीकृष्ण महाराज ने यहां स्पष्टतः ईश्वर को त्यागकर अन्य देवों की पूजा न करने का आह्वान किया है। हम वेदों के अध्ययन द्वारा उस निराकार परमेश्वर के स्वरूप, गुण, कर्म, स्वभाव को जानने का संकल्प लें।  तभी हमें सत्य का बोध होगा और हमारे मनुष्य जीवन का लक्ष्य जो ईश्वर प्राप्ति है, वह पूर्ण होगा…

गतांक से आगे…

अंत में सब ऋणों को चुकाकर पूर्णतः यज्ञ,वेदाध्ययन एवं योगाभ्यास करता हुआ ईश्वर को प्राप्त करे। अतः कहा कि हे अर्जुन जो ईश्वर की कामना करते हैं, जो ईश्वर की पूजा करते हैं,केवल भक्त जन ही ईश्वर को पाते हैं और ईश्वर को त्यागकर जो अन्य ऊपर कहे देवों की पूजा में ही रत रहते हैं अथवा वेद विरुद्ध जड़ देवों/पदार्थों की कामना-पूजा करते हैं, वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में सदा फंसे रहते हैं। वह ईश्वर को कदापि प्राप्त नहीं करते । श्रीकृष्ण महाराज ने यहां स्पष्टतः ईश्वर को त्यागकर अन्य देवों की पूजा न करने का आह्वान किया है। हम वेदों के अध्ययन द्वारा उस निराकार परमेश्वर के स्वरूप, गुण, कर्म,स्वभाव को जानने का संकल्प लें। तभी हमें सत्य का बोध होगा और हमारे मनुष्य जीवन का लक्ष्य जो ईश्वर प्राप्ति है, वह पूर्ण होगा। श्लोक 9/26  में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि पत्र, पुष्प, फल, जल से जो मेरे लिए भक्ति से अर्पण करता है, उन संयम में रहकर निरंतर भक्ति में लगे भक्त का भक्तिपूर्वक अर्पण की हुई वह भेंट मैं खाता हूं अर्थात स्वीकार करता हूं। भावः सामवेद मंत्र 594 में अलंकारिक भाषा में अन्न कह रहा है ‘अहम देवेभ्यः प्रथमजाः’ कि मैं संसार में सबसे पहले उत्पन्न हुआ हूं। ‘यःमा ददाति’ जो अन्य को मेरा दान करता है वहीं प्राणियों की रक्षा करता है और जो मेरा दान न करके स्वयं ही खाता है तो मैं ‘अन्न अदन्तम’  उस अन्न खाते हुए हो ‘अहम अन्नम अदिभ’ खा जाता हूं। भोजन करने से पहले सर्वप्रथम निराकार ईश्वर को याद किया जाए और उसके निमित्त अन्न का कुछ भाग घर से बाहर पक्षी आदि के लिए रख दिया जाए जिसे बलिवैश्व देव यज्ञ कहते हैं। इस मंत्र का भाव यह नहीं है कि अन्न दान न करने वाले को खा जाएगा। अन्न तो जड़ पदार्थ है, वह किसी को कैसे खाएगा। भाव यह है कि जो अन्नादि दान नहीं करते,वह ईश्वर के नियमानुसार दुःखों को प्राप्त होकर नष्ट हो जाते हैं। उनका जीवित रहना भी दुःखों के कारण मरने के समान होता है। ऋग्वेद का दूसरा मंत्र 10/117/6 ‘केवलाघो भवति केवलादी’ अर्थात जो अकेला खाता है।               – क्रमशः