जीत के कगार पर

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

देश के हालात बताते हैं कि हर कोई जीत के कगार पर है। दिल्ली में हर कोई दूसरे को हरा कर जीत रहा है, हर मसला परेशान, लेकिन मीडिया इस समय को जीत रहा है। जीतना अब हर भारतीय का शगल है और हमारी बहस का अमल है। इसलिए किसी चाय की दुकान पर बहस न करें और न ही अपने फटे हालात पर कुछ बयां करें। आम नागरिक को मालूम होना चाहिए कि उसकी हार में ही हर राजनीतिक दल की जीत तय है। वह हारता है तो प्रशासन जीतता है। वे तमाम वादे जीत जाते हैं, जो कभी पूरे नहीं होते, क्योंकि जीत अपने आप में सोचने का नजरिया है। यह नजरिया बदल रहा है, हर जीते हुए इनसान के मुकाबले हारने का यथार्थ बदल रहा है। कभी किसी डाक्टर, वकील या पत्रकार को हारते देखा क्या। कोई प्रोफेशन अब हारता नहीं, बल्कि उपभोक्ता हर दौड़ में हारता है। सड़क पर जीतने की पैमाइश में हर वाहन की ब्रिकी जीत जाती है, मगर हारता तो चौराहे पर खड़ा सिपाही ही। पुलिस तब जीत जाती है, जब कहीं कानून हार रहा हो या उस वकील की दलील को जीतना कहें जब कोई कातिल फंदे से छूट रहा हो। निर्भया कांड के दोषी इसलिए अभी तक हारे नहीं, क्योंकि वहां वकील जीत रहे हैं। ऐसे पता नहीं कितने अपराध हैं जहां जीतने की जंग में हमारी कानून-व्यवस्था को हारना पड़ता है। दरअसल भारतीय परवरिश में हार को भी जीत की उपाधि हासिल है और हम हमेशा अगले जन्म को जीतने के लिए वर्तमान यथार्थ को हारते रहते हैं। इसलिए दिल्ली के चुनावों में भारत का भविष्य खुद ही देख रहा है कि उसे जीतने के लिए किसे हराना है। क्या इसके लिए हम शाहीन बाग को हरा पाएंगे या चुनाव प्रचार का सारा जहर पाकिस्तान तक पहुंचा देंगे। हमें मालूम है कि जीत भी जीवन की धारणा है, लेकिन उपयोग में हार का प्रचलन है। इसलिए जब हम राजनीति के आगे हारते हैं, तो एक जीता हुआ नेता मिलता है। अपने वजूद में हार का अक्स ढूंढिए। दरअसल आपकी सफलता की जीत में जो जिद है, उसके विपरीत तब तक कोई खड़ा नहीं होगा जब तक उसे मालूम है कि अब तो जीत भी केवल कहने भर की संज्ञा है। चार-छह पत्रकार नारा लगा दें या आप किसी को यूं ही खिला दें, तो दीवारों पर लिखा बदला जा सकता है। पहले जीतने वाला तमाम दीवारें तोड़ता था, जमीन को सींचता था या उसके कर्म की मर्यादा पर जमाना फिदा होता था, लेकिन अब हर जीत को नफरत, घृणा, दीवार, भय और अविश्वास चाहिए। जीत की शर्तें और जीत के नायक बदल रहे हैं। नायक से सहमत हों या न हों, नायक वही है जो अपने खिलाफ खड़ी असहमति को हरा दे। देश ऐसे नायकों की बदौलत हर असहमति को धूल चटा रहा है, इसलिए हम तो चाहेंगे कि अपनी जीत बरकरार रखें। दिल्ली का चुनाव दरअसल जीत की नई व्याख्या खोज रहा है। हमें हार कर भी अगर ऐसा नायक मिल जाए जो असहमति को धराशायी कर दे, तो मंजूर है वरना जीत के लिए तो हम न जाने कितनी बार प्याज से लड़े और जब भी मौका मिला, सरकारी राशन की दुकान पर ही मिले।