दिल्ली के ‘बजरंगी भाईजान’

दिल्ली का जनादेश केजरीवाल और उनकी ‘आप’ के नाम रहा। बेशक यह बेहद शानदार जीत है, क्योंकि केजरीवाल लगातार तीसरी बार चुनावी मैदान में थे और उनकी सरकार को ढेरों चुनौतियां थीं। इस संदर्भ में ‘आप’ ने एक नया इतिहास रचा है। गुजरात में भाजपा के बाद ‘आप’ दूसरी ऐसी पार्टी है, जिसने सत्ता में रहते हुए 50 फीसदी या उससे अधिक वोट हासिल किए हैं। ‘आप’ को करीब 58 फीसदी वोट मिले हैं और 63 विधायक चुने गए हैं, लेकिन भाजपा का मत-प्रतिशत बढ़ा है। बेशक केजरीवाल और ‘आप’ ने एक बार फिर चुनावी जीत प्राप्त की है, बेशक बेहतर शिक्षा,अच्छी सेहत, भरपूर पोषण और एक सार्थक प्रशासन को जनादेश मिला है, बेशक दिल्ली में प्रवाहित जहरीली हवाएं और नफरत का मौसम पराजित हुआ है, बेशक जनादेश ने साबित कर दिया कि काम को भी वोट मिलते हैं, लेकिन कुछ मायनों में सांप्रदायिक धु्रवीकरण भी हुआ है, नतीजतन 2015 में मात्र 3 विधायकों पर सिमटी भाजपा ने 2020 में मात्र 7 सीटें जीती हैं। साफ  है कि बीते कुछ दिनों में भाजपा ने चुनाव प्रचार में जो ताकत फूंकी थी, अंततः वह सार्थक रही, लेकिन भाजपा की गालबजाई पिट गई। ‘आप’ नेता जश्न में डूबे कह रहे हैं कि दिल्ली के ‘बजरंगी भाईजान’ ने ‘नफरत की लंका’ जला कर भस्म कर दी। बहरहाल केजरीवाल का तीसरी बार मुख्यमंत्री बनना तय है। भविष्य के ब्लू पिं्रट उनके मन-मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ करने लगे होंगे, लिहाजा ‘आप’ ने अब नया नारा गढ़ लिया है-‘अच्छे होंगे पांच साल, दिल्ली में तो केजरीवाल।’ दिल्ली में केजरीवाल ने अपनी राजनीति स्थापित कर दी है। अब बिजली, पानी, सीवर, स्कूल, अस्पताल आदि मुद्दे खुद ही गतिमय होंगे और केजरीवाल राष्ट्र-निर्माण की तरफ  बढ़ेंगे। ‘आप’ ने इस आशय की घोषणा करते हुए एक मोबाइल नंबर दिया है, जिस पर मिस्ड कॉल करके देश जुड़ सकता है। राष्ट्रवाद और देशभक्ति को भी पुनः परिभाषित करने की कोशिश ‘आप’ ने की है। पार्टी शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बुनियादी सुविधाओं को ‘राष्ट्रवाद’ करार दे रही है। केजरीवाल देश की सियासत में कब कूदेंगे, फिलहाल यह जल्दबाजी का सवाल होगा, लेकिन 2024 में आम चुनाव से पहले वह ऐसा प्रयोग कर सकते हैं। उससे दो साल पहले 2022 में पंजाब और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं। शायद उन चुनावों से केजरीवाल किसी राजनीतिक, चुनावी प्रयोग का आगाज करें! दरअसल दिल्ली में केजरीवाल ने भाजपा को बहुआयामी हार दी है। करीब 22 साल के बाद भी भाजपा का वनवास जारी है। दिल्ली जनसंघ के दिनों से ही भाजपा का गढ़ रही है। सबसे पहले शरणार्थी समुदाय उससे जुड़ा। दिल्ली के तीन दिग्गज नेता-केदारनाथ साहनी, मदन लाल खुराना और विजय कुमार मल्होत्रा-पंजाबी समुदाय से ही थे। बाद में भाजपा का विस्तार हुआ और उसका 32-33 फीसदी वोट बैंक एकजुट रहा। उसके बावजूद केजरीवाल के राजनीतिक कार्यक्रम ने भाजपा की जमीन हिला दी। इसमें गौरतलब यह भी रहा कि कांग्रेस को जो 10-12 फीसदी वोट 2015 तक पड़ते रहे, वे इस बार सिमट कर 4 फीसदी हो गए। जाहिर है कि वह वोट बैंक ‘आप’ के हिस्से आया। दरअसल दिल्ली के आधुनिक, प्रगतिशील, पढ़े-लिखे वोटर ने गाली, गोली, गद्दार, आतंकी और नक्सली की राजनीति को सिरे से ही खारिज कर दिया। उसे ‘मुफ्तखोर’ कहना भी गाली देने के बराबर है। अब भाजपा को बार-बार मंथन करना पड़ेगा कि एकध्रुवी चुनाव लड़ना है, एक चेहरा ही देश के तमाम राज्यों में घुमाते रहना है या प्रादेशिक क्षेत्रों का भी उभार होना चाहिए। अटल-आडवाणी के दौर में विभिन्न क्षत्रप उभरे। नतीजतन मोदी जैसा चेहरा आज देश पर शासन कर रहा है। केजरीवाल और ‘आप’ को हमारी शुभकामनाएं और चुनौतियों को झेलने की भी मंगल कामना करते हैं। विपक्ष के कई मुख्यमंत्रियों और नेताओं ने केजरीवाल को जीत की बधाई दी है। क्या अब केजरीवाल समूचे विपक्ष का चेहरा बनेंगे?