परिपक्वता का अभाव

बाबा हरदेव

अतः जो मनुष्य थोड़ा सा गंभीर है जीवन के प्रति और समझता है कि फलां-फलां काम इसे करना है, मानो जिसके मन में कर्ता भाव का जरा सा भी एहसास मौजूद है वह मित्रों और शत्रुओं के बीच कभी समभाव नहीं रख सकता। क्योंकि कर्ता भाव का एहसास ही इसे मजबूर करता रहेगा कि मित्रों के प्रति भिन्न भाव रखा जाए। हां, मित्र और शत्रु के बीच हम समभाव रख सकेंगे अगर हमारे मन में कर्ता भाव का अनुभव हो तो अर्थात हमारे में यह भाव न हो कि हमें कहीं पहुंचना है अथवा हमने कुछ करके दिखाना है। अब इसका यह अर्थ नहीं है कि हम बिलकुल ही निष्क्रिय होकर बैठ जाएं। इसका इतना ही अर्थ है कि कर्म तो हमने करते ही चले जाना है लेकिन यह जिद अथवा अहंकार हमारे भीतर न हो कि हम कर्ता हैं, हमने यह कर्म करके ही रहना है। इसके अतिरिक्त जो हमारे काम में साथ देता है उसके प्रति तो धन्यवाद का भाव रखना ही है और जो हमारे काम में किसी प्रकार की बाधा डालता है उसके प्रति भी किसी प्रकार का विरोध न हो अर्थात जो रास्ते में पत्थर बिछा देता है उसके प्रति भी सहानुभूति रखें। इस अवस्था में समानता का सूर्य उदय होता है और फिर मित्र और शत्रु के समभाव के दर्शन होने लगते हैं। अतः यह बात स्पष्ट है कि जो व्यक्ति जीवन को अपना एक निजी काम समझ लेने की नासमझी का शिकार हो जाता है और जिस व्यक्ति ने यह ख्याल अपने मन में अपनी नादानी के कारण बिठा लिया है कि इसने अपने जीवन में कुछ करके दिखाना है वह मित्र और शत्रु निर्मित करेगा ही और इस तरह से वह मित्र और शत्रु में समभाव कभी नहीं रख सकेगा। महात्मा फरमाते हैं कि मित्र और शत्रु में समभाव रखना तभी संभव है जब हमारे भीतर जो प्रेम पाने की आकांक्षा है वह पूर्ण सद्गुरु की कृपा द्वारा विदा हो जाए। अब विडंबना यह है कि सभी के मन में मरते दम तक प्रेम पाने की अकांक्षा विदा नहीं हो पाती। जब बच्चा पैदा होता है, तब पहले दिन भी वह प्रेम पाने के लिए आतुर होता है, उतना ही जितना बूढ़ा व्यक्ति मरते समय आखिरी श्वास लेते समय होता है,मानो  प्रेम पाने की आतुरता बनी रहती है,बस ढंग बदल जाते हैं। प्रेम का भोजन न मिले तो हम भूखे मरने लग जाते हैं क्योंकि प्रेम से चित को प्राण मिलते हैं। हम अगर किसी को प्रेम देते भी हैं तो इसलिए कि हम इससे प्रेम चाहते हैं और यह हम सौदेबाजी कर रहे होते हैं। अतः हमारा इस प्रकार का व्यवसाय आबद्ध दिया हुआ प्रेम वैसे ही है जैसे कोई मछली पकड़ने वाला कांटे पर आटा लगा देता है और कांटे वाली लकड़ी को लटका कर बैठ जाता है। अब मछली केवल आटा खाने को आती है और तब पाती है कि कांटा इसके प्राणों तक चुभ जाता है। स्पष्ट है कि अगर इस तरह का हमें किसी से प्रेम निवेदन करना पड़ता है, तो यह आटा है। महात्मा फरमाते हैं कि जब तक यह  अकांक्षा है तब तक हम बच्चों जैसी हरकतें कर रहे होते हैं, हममें परिपक्वता का अभाव होता है। वास्तविकता में परिपक्व मनुष्य वह है, जिसके हृदय में प्रेम पाने का कोई भाव न रह गया हो। अंत में कहना पड़ेगा कि जो आदमी प्रेम मांग रहा है, दूसरों से वह मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि को उपलब्ध नहीं हो सकता। वही सही मायनों में मित्र और शत्रु के बीच समभाव रख सकता है और कोई उपाय नहीं है।