बालकों के चरित्र निर्माण में लेखन की अवधारणा

डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’

मो.-7018816326

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्नेस्ट हेमिंगवे का कथन है कि ‘लिखना श्रमसाध्य कष्टप्रद कला है’, लेकिन बाल साहित्य का सृजन तो और भी कठिन है क्योंकि बच्चों के लिए लिखते वक्त लेखक बे सिर-पैर की उड़ान नहीं भर सकता। उसे अपने मन को हर समय अनुशासन के नियंत्रण में रखना पड़ता है। इतना ही नहीं, उसे बाल रचना में बच्चों के स्तर पर ही उतरना पड़ता है, तभी वह ऐसी रचना का सृजन कर पाता है, जो बच्चों के मन के अनुकूल हो। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ बाल कहानी का अद्भुत उदाहरण है। हामिद का चित्रण तो मनोवैज्ञानिक है ही, परंतु बड़ी बात तो लेखक का बच्चों के साथ बच्चा हो जाना है। बच्चे मेले में कभी कुछ खाते हैं, कभी कुछ, लेकिन हामिद अपनी इच्छाओं को रोके रखता है ताकि वह पैसे बचा कर अंत में अपनी दादी के लिए चिमटा खरीद सके क्योंकि वह देखता है कि दादी के हाथ रोटियां पकाते हुए जल जाते हैं। पाठक के मन में सहानुभूति उपजाने में जब लेखक सफल होता है, तो रचना सफल हो जाती है और उसके पात्र भी सार्थक हो उठते हैं।  इसी प्रकार 13 अक्तूबर, 2019 की रविवारी जनसत्ता में छपी प्रयाग शुक्ल की कविता ‘आए कबूतर’ बाल मनोविज्ञान की सुंदर कविता है- ‘उड़ उड़ इधर आए कबूतर, दो ठो घर के भीतर आए, कुछ बाहर कुछ छत पर आए, आए कई कबूतर आए।’ बाल मन क्या सोचता है, उसी के अनुकूल पंक्तियों को ढालना, सफल बाल रचना की कुंजी है। लेखक हर समय सजग रहता है कि वही बात लिखी जाए जो तथ्यपरक हो क्योंकि बालमन कच्ची मिट्टी की तरह होता है, जो रूप हमने एक बार दे दिया वही मानस में पक जाता है। जादू-टोना, भूत-प्रेत आदि से संबंधित बाल रचनाएं भी लिखी जाती हैं लेकिन लेखक की अवधारणा में अंधविश्वासों को बढ़ावा देना उसका लक्ष्य नहीं होता। इसके विपरीत उसका कर्त्तव्य तो बालमन में सही आचार-विचार का संप्रेषण करना होता है। विज्ञान के तथ्यों पर आधारित भी बहुत-सी रचनाएं समय-समय पर लेखकों ने लिखी हैं लेकिन उनका मूल उद्देश्य भी बच्चों में वैज्ञानिक ज्ञान का सृजन करना होता है। अंतरिक्ष में चंद्रयान की उड़ान विज्ञान की जानकारी देते हुए कल्पना जनित उपन्यास का विषय हो सकती है। इसी प्रकार पर्यावरण को आधार बनाकर भी रोचक उपन्यास लिखे गए हैं। सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी बच्चों एवं किशोरों के लिए रोचक ग्रंथ उपलब्ध हैं। जीवन शैली को लेकर भी कविता, कहानी, एकांकी, उपन्यास, हास्य नाटिका आदि लिखी गई हैं, लेकिन बात वहीं आकर अटक जाती है कि बाल साहित्य को प्रौढ़ साहित्य की तुलना में कुछ नहीं समझा जाता। हालांकि बाल साहित्य की काफी पत्रिकाएं अब भी निकलती हैं, लेकिन उतना इम्पैक्ट फिर भी नहीं है जितना होना चाहिए । इंटरनेट के दुष्प्रभाव से बच्चों को बचाने के लिए तो और अधिक अच्छी रचनाएं करने की जरूरत है। कई प्रदेशों में तो बाल साहित्य के लिए पुरस्कारों की व्यवस्था तक नहीं है और बाल लेखकों की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए कोई प्रोत्साहन ही नहीं। ऐसी स्थिति में लेखन की अवधारणा क्या करेगी? अलग-अलग लेखकों की अवधारणा थोड़े-बहुत अंतर के साथ मूलतः वही होती है कि बच्चों के भावी जीवन को ध्यान में रखकर लिखा जाना चाहिए जो सार्थक हो, तथ्यपरक हो, सकारात्मक हो और नीति-रीति को बल देने वाला हो। भले ही कथा-कहानी पशु-पक्षियों के माध्यम से हो, ताल-बेताल के माध्यम से हो या गेय तुकबंदियों के द्वारा हो, होनी निश्चित रूप से चरित्र निर्माण में सहायक चाहिए। बाल मनोविज्ञान से सम्पुष्ट, स्वच्छ, सरल भाषा में रचित रचनाएं ही बालकों एवं किशोरों के लिए उपयोगी कृतियां सदा प्रासंगिक बनी रहेंगी। मुझे तो यह देखकर हैरानी होती है कि अपने ही प्रदेश में यदि बाल उपन्यासों की सूची बनानी पड़े, तो संख्या दस तक भी नहीं पहुंचेगी। फिर क्या अवधारणा और क्या मिथ्या अवतारणा। कहीं से कोई चुनौती ही नहीं, प्रोत्साहन तो दूर की बात है, तो जब अधिक लिखा ही नहीं जा रहा हो तो अवधारणा क्या करेगी। ऐसी स्थिति में बाल लेखक किसके लिए लिखे और क्यों लिखे?