मनमाने आचरण से सिद्धि नहीं मिलती

विशेष : जो तंत्र साधक शास्त्र-विधि का त्याग करके मनमाना आचरण करता है, वह न तो सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख को और न ही परम गति को प्राप्त होता है। अतएव साधक शास्त्र के निर्देशानुसार ही इस स्तोत्र का पाठ करके उन अवस्थाओं को पहुंचें जो शिवसंवाद के रूप में यहां बताए गए हैं। इसे तंत्र शक्तियां प्राप्त करने वाले साधक को ही करना चाहिए।

ज्ञान की कुंजी

कोई भी विद्या अथवा ज्ञान गुरु के बिना नहीं प्राप्त किया जा सकता। पूर्व काल में जितने भी अवतारी पुरुष हुए, उन्हें भी सर्वप्रकार की विद्याओं की शिक्षा विधिवत लेनी पड़ी थी…

-गतांक से आगे…

चतुर्थं भक्ष्यभोज्यं न भक्ष्यमिंद्रिय निग्रहम्।

सा चतुर्थी विजानीयादितरे भ्रष्टकारकाः।।

चतुर्थ मकार- मुद्रा वस्तुतः भक्ष्य, भोज्य, अन्न और इंद्रियों का निग्रह है। जो लोग अन्य मुद्राओं का आश्रय लेते हैं, वे भ्रष्टकर्मा हैं।

हंसः सोअहं शिवः शक्तिर्द्राव आनंद निर्मलाः।

विज्ञेया पंचमीतीदमितरे तिर्यगामिनेः।।

‘हंस सोअहं’ स्वरूप शिव-शक्ति का परम कृपापूर्ण सामरस्य ही पंचम मकार- मैथुन है।

स द्रावश्चक्षुः पात्रेण पूज्यते यत्र उन्मनी।

दिद्युल्लेखाशिवैकेमां साध्यंते दैवसाधकाः।।

इस अवस्था में नेत्र रूपी पात्र से उन्मनी की पूजा की जाती है। यही पूर्ण कला है। देव-साधक इसी की साधना करते हैं।

पूजकस्तंमयानंदः पूज्य पूजकवर्जितः।

स्वसंवेद्य महानंदस्तंमयं पूज्यते सदा।

इसमें पूजा और पूजक भाव से मुक्त होकर साधक तन्मयानंद प्राप्त करता है तथा अंत में स्वयंवेद्य महानंद का लाभ प्राप्त करता है।

विशेष :जो तंत्र साधक शास्त्र-विधि का त्याग करके मनमाना आचरण करता है, वह न तो सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख को और न ही परम गति को प्राप्त होता है। अतएव साधक शास्त्र के निर्देशानुसार ही इस स्तोत्र का पाठ करके उन अवस्थाओं को पहुंचें जो शिवसंवाद के रूप में यहां बताए गए हैं। इसे तंत्र शक्तियां प्राप्त करने वाले साधक को ही करना चाहिए।

ज्ञान की कुंजी

कोई भी विद्या अथवा ज्ञान गुरु के बिना नहीं प्राप्त किया जा सकता। पूर्व काल में जितने भी अवतारी पुरुष हुए, उन्हें भी सर्वप्रकार की विद्याओं की शिक्षा विधिवत लेनी पड़ी थी। यह बात अलग है कि उनको अल्प काल और थोड़े प्रयत्न मात्र से ही सिद्धियों की प्राप्ति होती रही। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने भी अपने भाइयों सहित गुरु विश्वामित्र के आश्रय में रहकर धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की थी तथा गुरु वशिष्ठ के पास रहकर अध्यात्म की शिक्षा ली थी।