लावारिस पशुओं से निजात दिलाए बजट

प्रो. सुरेश शर्मा

लेखक, नगरोटा बगवां से हैं

राज्य में कृषि के साथ पशुपालन का घनिष्ठ संबंध व अत्यधिक महत्त्व है। किसान भेड़, बकरी, गाय, बैल, भैंस आदि घरेलू पशु पालते हैं। प्रदेश में जहां बहुत बड़ी संख्या में लोग पूरा वर्ष कृषि कार्य में संलग्न रहते हैं, वहीं पर प्रदेश के घरेलू उत्पाद में कृषि से लगभग इकानवें प्रतिशत खाद्यान्न प्राप्त होते हैं। कृषि का हमारे मेलों, त्योहारों, परंपराओं, संस्कारों तथा जीवन के सरोकारों से अटूट संबंध है…

हिमाचल प्रदेश की खुशहाली, विकास और तरक्की के लिए हर वर्ष राज्य के विधानसभा पटल पर बजट प्रस्तुत किया जाता है जिससे कि प्रदेश में खुशहाली की इबारत लिखी जाती है। हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2020-2021 का बजट कुछ ही दिनों में राज्य की विधानसभा में प्रस्तुत किया जाना अपेक्षित है। विगत वर्षों में राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा, खेल, पर्यटन तथा विभिन्न क्षेत्रों में कई आयाम स्थापित हुए हैं। प्रदेश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग कृषि पर निर्भर करता है तथा कृषि तथा पशुपालन से प्राप्त होने वाली आय से ही अपना जीवन निर्वाह करता है। किसान अपनी मेहनत, परिश्रम से खेती कर अपना व अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। हिमाचल एक कृषि प्रधान प्रदेश है। कृषि हमारी जीवन पद्धति का एक अटूट एवं अभिन्न अंग है। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। वर्तमान में प्रदेश में लगभग 69 प्रतिशत जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष रूप से कृषि कार्य पर निर्भर करती है। यह प्रदेश की आय का प्रमुख स्रोत है तथा राज्य की कुल आय का लगभग 22.1 प्रतिशत भाग कृषि से प्राप्त होता है। राज्य में कृषि के साथ पशुपालन का घनिष्ठ संबंध व अत्यधिक महत्त्व है। किसान भेड़, बकरी, गाय, बैल, भैंस आदि घरेलू पशु पालते हैं। प्रदेश में जहां बहुत बड़ी संख्या में लोग पूरा वर्ष कृषि कार्य में संलग्न रहते हैं, वहीं पर प्रदेश के घरेलू उत्पाद में कृषि से लगभग इकानवें प्रतिशत खाद्यान्न प्राप्त होते हैं। कृषि का हमारे मेलों, त्योहारों, परंपराओं, संस्कारों तथा जीवन के सरोकारों से अटूट संबंध है। कृषि संस्कृति हर समय में हमारे जीवन को प्रभावित करती रही है। कृषि जीवन की संस्कृति है। यह सिलसिला हजारों वर्षों से अनवरत यूं ही चल रहा है क्योंकि हमारी जीवनशैली ही कृषि पर निर्भर करती है। वर्तमान में ऐसा समझा जाता है कि अब कृषि कोई आकर्षक व्यवसाय नहीं रह गया है तथा इससे आय बहुत ज्यादा नहीं है। अच्छी खेती के लिए उर्वरक, ट्रैक्टर, मजदूरी तथा सिंचाई पर निर्भर रहना पड़ता है। कोई व्यक्ति किसी के घर पर मजदूरी करने के लिए राजी नहीं है। कोई मजदूरी करना भी चाहे तो उसे उचित पारिश्रमिक व मेहनताना नहीं मिलता। फसल होती है तो जंगली सूअर, बंदर, पशु-पक्षी अन्य जंगली जानवर समय से पहले ही उसे तहस-नहस कर देते हैं। अत्यंत चिंतनीय व विचारणीय है कि गांवों में अधिकतर बच्चों ने पढ़ना-लिखना छोड़ छोटे-मोटे व्यावसायिक धंधे करने शुरू कर दिए हैं।

परिवार  छोटी-छोटी इकाइयों में बंट चुके हैं। कृषि के लिए पारिवारिक सदस्यों व सामाजिक सहयोग की आवश्यकता होती है। अधिकतर गांवों में केवल बुजुर्ग रह गए हैं। उनसे खेती होती नहीं। घर के बेटे अपने बीवी-बच्चों को रोजगार व  शिक्षा के लिए शहरों का रास्ता पकड़ चुके हैं। घरों में कमाने वाला कोई नहीं। किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है। जमीनें बंजर हो चुकी हैं। खेती करने वाला किसान पशुओं और जमीन के चक्कर में पड़कर अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहता। माना जाता था कि दूध व पूत के बिना घर नहीं होता, इसे संपन्नता की निशानी समझा जाता था। पशुओं के लिए घर की जमीन में चारा उपलब्ध होता था। घर में दूध, दही, घी, मक्खन की संपूर्णता होती थी। आज यह कमी पैकेट दूध, दही और छाछ के पैकेट प्रोडक्ट्स ने पूरी कर दी है। घरों में किसी के पास न तो पशु है न दूध। शादी, त्योहारों, उत्सवों-मेलों में पैकेट दूध, दही और छाछ मिल जाती है। चाहे उनमें साबुन, शैंपू, खाद व केमिकल की ही मिलावट क्यों न हो। कृषि-संस्कृति में पशुपालन एक अहम व महत्त्वपूर्ण घटक है। बिना पशुओं से तो कृषि की कल्पना ही नहीं की जा सकती। पौष्टिकता के लिए हल्का, सुपाच्य व गुणकारी दूध देने वाली गाय माता अपने जीवन यापन के लिए आज दर-दर भटक रही है। बैल अब सड़कों पर बैठकर धरने दे रहा है, चोटिल हो रहा है यह मानवता पर बहुत बड़ा कलंक है। मानवता कराह रही है। कभी पूरा जीवन किसान के खेत में हल चलाने वाला यह बैल जीवन पर्यंत किसान द्वारा खूंटे पर ही पाला जाता था। हमारे जीवन मूल्यों का किस कदर पतन हो चुका है कि अब यह बैल सड़कों पर लावारिस घूम रहा है। घरेलू जानवर व किसान में जीने के लिए संघर्ष तथा अघोषित सा युद्ध शुरू हो चुका है। किसान की नींद हराम हो चुकी है। लोग रात-रात भर इकट्ठे होकर फसलों की रक्षा के लिए पहरा दे रहे हैं। निरीह व बेजुबान पशु मानव हिंसा का शिकार हो रहा है। अपने सामने अपनी कमाई को लुटते व बर्बाद होते भी नहीं देखा जा सकता। पशुओं पर डंडे बरस रहे हैं। लावारिस व आवारा पशुओं ने कई लोगों को घायल ही नहीं बल्कि मौत के घाट उतार दिया है। घर-घर में गैस चूल्हे हैं। लकड़ी के चूल्हे के धुएं से आंखें खराब होती हैं।

‘ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ-साथ चलते’-इस गाने की पंक्तियों को याद करते हुए वर्तमान में सभी को आत्मचिंतन, आत्ममंथन व आत्म विश्लेषण करने की आवश्यकता है। भौतिकवादी सोच, चकाचौंध, आराम परस्ती व ‘खाओ पियो ऐश करो मित्रों’ की सोच व जीवनशैली से बाहर निकल कर हमें जीवन की कड़वी सच्चाइयों को स्वीकार करना होगा। यह सत्य है कि हर समय में नए अवसर व नई चुनौतियां रहती हैं, लेकिन किसी भी परिस्थिति में हम अपने जीवन मूल्यों, संस्कारों, परंपराओं व संस्कृति की जड़ों से अलग नहीं हो सकते। जंगली, आवारा एवं लावारिस पशुओं द्वारा फसलों की उजाड़ से किसान निराश एवं हताश हैं। उसके चेहरे पर निराशा एवं परेशानी की इबारत को पढ़ा जा सकता है। इस समस्या का सरकारी, सामाजिक व न्यायिक दृष्टि से कोई न कोई समाधान निकालना ही चाहिए। इस दिशा में प्रदेश का कृषि एवं पशुपालन विभाग अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। सरकार को लावारिस पशुओं तथा जंगली जानवरों के आतंक से किसान को मुक्ति दिलाने के लिए आगामी बजट में कोई पुख्ता एवं कारगर योजना लेकर उसके लिए धन का प्रावधान कर किसान के आंसू पोंछने का प्रयास करना चाहिए ताकि वह पशुओं की हिंसा, उजाड़ तथा आतंक का शिकार न हो। लोकतंत्र में सरकारें अगर चाहें तो किसानों व युवाओं के कल्याण तथा उनके पुनरुत्थान के लिए कृषि व पशुपालन के क्षेत्रों में नए अवसरों का सृजन कर, उन्हें अनुदान देकर तथा प्रेरित कर खेती-बाड़ी के लिए उनकी सकारात्मक सोच व ऊर्जा का उपयोग कर सकती हैं। कृषि के क्षेत्र में अप्रत्याशित व अकल्पनीय परिवर्तन कर देश व प्रदेश को खुशहाल बनाने का प्रयास कर सकती हैं। आवश्यक है आने वाले बजट में सरकार किसान का दर्द समझे। यह आशा की जा सकती है कि सरकार के नए बजट में किसानों की इस अति गंभीर समस्या का कोई न कोई समाधान अवश्य रूप से निकलेगा तथा निरीह व बेजुबान पशुओं की रक्षा का भी कोई न कोई हल निकलेगा। इस कार्य के लिए सरकार व राजनेताओं की इच्छाशक्ति, अफसरशाही की सोच व योजनाएं तथा कृषि वैज्ञानिकों के शोध, खोज, अनुसंधान व आधुनिक तकनीक एक बार फिर नई पीढ़ी में कृषि के लिए आकर्षण पैदा कर हमारे जीवन में खुशी ला सकते हैं।