विवेक चूड़ामणि

गतांक से आगे…

सदैकरूपस्य चिदात्मनो विभोरानंद मूर्तेरनवद्यीिर्तेः।

नैवान्यथा क्वाप्यविकारिणस्ते विनाहमध्या सममुष्य संसृतिः।।

इस अहंकार रूपी अध्यास के बिना तुझ सर्वदा एकरूप, चिदात्मा, व्यापक, आनंदस्वरूप,पवित्रकीर्ति और अविकारी आत्मा को और किसी प्रकार से संसार बंधन की प्राप्ति नहीं हो सकती।

तस्मादहंकारामियं स्वशत्रुं भोक्तुर्गले कंटकवत्प्रतीतम।

विच्छिद्य विज्ञानमहासिना स्फुटं भुंक्ष्वात्मसाम्राज्यसुखं यथेष्टम।।

इसलिए हे विद्वान! भोजन करने वाले पुरुष के गले में कांटे के समान चुभने वाले इस अहंकाररूप अपने शत्रु का विज्ञान रूप महाखड्ग से भली प्रकार छेदन कर आत्म साम्राज्य सुख का यथेष्ट भोग करो।

ततोऽहमादेर्विनिवर्त्य वृत्तिं संतयक्तरागः परमार्थलाभात।

तृष्णीं समास्वात्मसुखनुभूत्या पूर्णत्मना ब्रह्मणि निर्विकल्पः।।

फिर अहंकार आदि की कर्तृत्व भोक्तृत्व आदि वृत्तियों को हटाकर परमार्थ तत्त्व की प्राप्ति से रागरहित होकर आत्मानंद के अनुभव से ब्रह्मभाव में पूर्णतया स्थित होकर निर्विकल्प और मौन हो जाओ।

समूलकृत्तोऽपि महानहं पुनर्व्युल्लेखितः स्याद्यदि चेतसा क्षणम।

संजीव्य विक्षेपशतं करोति नभस्वता प्रावृषि वारिदो  यथा।।

यह प्रबल अहंकार जड़ मूल से नष्ट कर दिए जाने पर भी यदि एक क्षणमात्र को चित्त का संग प्राप्त कर ले तो पुनःप्रकट होकर सैकड़ों उत्पात खड़े कर देता है, जैसे कि वर्षाकाल में वायु से सुयुक्त हुआ मेघ।

क्रिया, चिंता और वासना का त्याग निगृह्य शत्रोरहमोऽवकाशः 

क्वचिन्न देयो विषयानुचिंत्या।

स एव संजीवनहेतुरस्य प्रक्षीण जम्बीरतरोरिवाम्बू।।

इस अहंकार रूप शत्रु का निग्रह कर लेने पर फिर विषय चिंतन के द्वारा इसे सिर उठाने का अवसर कभी नहीं देना चाहिए,क्योंकि नष्ट हुए जंबीर के वृक्ष के लिए जल के समान इसके पुनःजीवित हो उठने का कारण यह विषय चिंतन ही है।

देहात्मना संस्थत एव कामी विलक्षणः कामयिता कथं स्यात ।

अतोऽर्थसंधान परत्वमेव भेदप्रसक्तया भवबंधहेतुः।।

जो पुरुष देहात्म बुद्धि में स्थित है,वही कामना वाला होता है। जिसका देह से संबंध नहीं है,वह विलक्षण आत्मा भला कैसे सकाम हो सकता है? इसलिए भेदासक्ति का कारण होने से विषय चिंतन में लगा रहना ही संसार बंधन का मुख्य कारण है।

कार्यप्रवर्धनाद्वीजप्रवृद्धिः परिदृश्यते।

कार्य नाशाद्वीजना शस्तस्मात्कार्य निरोधयेतः।।

कार्य के बढ़ने से उसके बीज की भी वृद्धि होती देखी जाती है तथा कार्य का नाश हो जाने से बीज भी नष्ट हो जाता है,इसलिए कार्य का ही नाश कर देना चाहिए।

वासनावृद्धितः कार्यं कार्यवृद्धया च वासना।

वर्धते सर्वथा पुंसः संसारो न निवर्तते।।

वासना के बढ़ने से कार्य बढ़ता है और कार्य के बढ़ने से वासना बढ़ती है, इस प्रकार मनुष्य का संसार बंधन बिलकुल भी नहीं छूटता है। वासना और कार्य एक दूसरे को उत्पन्न करते रहते हैं।

संसारबंधविच्छित्ये तद्द्वयं प्रदहेद्यतिः।  वासनावृद्धिरेताभ्यां चिंतया क्रियया बहिः।।

इसलिए संसार बंधन को काटने के लिए यति को चाहिए कि वह इन दोनों का नाश करे।                    – क्रमशः