विष्णु पुराण

प्राददशेष विज्ञानं सगरया मृदा।।

अबाप्तज्ञानतन्स्य न तरुयादवैतवासना।

स ऋभुस्तर्कयामास निदघस्य नरेश्वरः।।

दविकायास्तटे वीरनगरं नाम वै पुरम।

समृकमतिरम्य च तुलस्त्येन निवेशित्तम।।

रम्योपवनपर्यंते य तस्मिन्पाथिवीत्तम।

निदोघोनाम योगज्ञ अभुशिष्योऽवसत्पुरा।।

उसे अत्यंत प्रसन्न होकर महर्षि ऋभु से  तत्तवोपदेश दिया। हे नरेश्वर उससे ऋभु को प्रतीत हुआ कि संपूर्ण शास्त्रों के होने पर भी निदाघ अद्वैत के प्रति निष्ठावान नहीं है। देविका नदी के किनारे पुलस्त्यसी देव और नगर नामक एक अति सुरम्य और समुद्र नगर की स्थापना की। वह नगर उपयनादि से सुशोभित था, जिनमे योग वेत्ता ऋभु शिष्य निदाय निवास करता था।

दिव्ये वर्षसहस्रे तु समतीतेऽस्य तत्पुरम।

जगाम स ऋभुः शिष्य निदाघमवलोककः।।

स्थितस्तेन गृहीतार्ध्यो निजवेश्म प्रवेशितः।

प्रक्षाविताङन्घ्रिपाणि च कृतासनपरिग्रहम।।

उवाच स द्विज श्रेष्ठो मुग्यतामिति सदिरम।

भो विप्रवष भोक्तव्यं यदन्न भवतो गृहे।।

तत्कज्यतां कदन्नेषु न प्रीतिः सततं मम।

सक्तुयावकवाटयानमपूपानां च में गृहे।

यद्रोचते द्विजश्रेष्ठ तत्त्वं भुङक्ष्व यथेच्छाया।।

कदन्ननि द्विजैतानि मृष्टमन्नं प्रयच्छमे।

सयावपायसादीनि द्रष्सभाणितवंति च।।

हे हे शालिनि मदगेहे यत्किंचितिशोभतम।

क्षम्योपधिसानं मृष्ट तैनास्यन्नं प्रसाधाय।।

एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत होने पर महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघ को देखने की इच्छा से उस नगर में गए। जब निदाघ बलि वैश्वदेव के वश्चात अपने द्वार पर अतिथियों की प्रतीक्षा में खड़ा था,तभी वे महर्षि उसे दिखाई दिए और वह उन्हें अर्घ्य देखकर अपने घर ले गया। उसने उनके हाथ,पांव धुलाकर उन्हें आसन पर बिठाया और आदर सहित बोला भोजन करिए। ऋभु ने कहा, हे विप्रश्रेष्ठ आपको यहां जिस अन्न का भोजन करना है वह मुझे बताओ। क्योंकि कुत्सित अन्नके प्रति मुझे अरुचि है। हे निदाघ! द्विजोत्तम मेरे यहां सत्तु,जौ की लस्सी वाटी और पुए बनाए गए हैं, इनमें से जो आप चाहें,वही भोजन करें। ऋभु ने कहा, हे द्विज! यह सभी कुत्सित अन्न है मुझे तो हलवा, मटठा, मिशनादि स्वादिष्ट अन्न का भोजन कराओ। निदाघ ने कहा, हे शालिनि मेरे घर पर जो श्रेष्ठ पदार्थ हों, उसी से इनके लिए अति सुस्वादु भोजन तैयार करो।

इत्युक्ता तेन सा पत्नी मृष्टमन्नं द्विजस्य यत।

प्रसाधितवती तद्वैभर्तुवचनगौरवात।।

तुं भुक्तवंतमिच्छातो मृष्टमन्नं महामुनिम।

निदाघः प्राहा भूपाल प्रश्रयावनतः स्थितः।।

अपि ते परमा तृप्तिरुत्पन्न तुष्टिरेव च।

ब्राह्मण बोले निदाघ द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उसकी पत्नी ने पति आज्ञा से आदर पूर्वक उनके लिए अति सुस्वादु भोजन बनाया। हे राजन! जब ऋभु ने अपनी इच्छा के अनुसार भोजन कर लिया, तब निदाघ ने अत्यंत विनय पूर्वक उन महामुनि से कहा, निदाघ बोले हे द्विज भोजन करके आपका चित्त प्रसन्न तो हुआ। आप पूर्ण रूपेण तृप्त और संतुष्ट हो गए।