हारे को हरि राम

सुरेश सेठ

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आज की दुनिया में सिद्धांतों और आदर्शों की दुहाई देने से बड़ी पोंगा पंथी कोई और नहीं। बल्कि यह समझा जा रहा है कि ‘हारे को हरिनाम’ की तरह जो आदर्शों और सिद्धांतों की दुहाई दे रहा है, वह सबसे बड़ा पराजित है। यूं अपनी पराजय को न्याय संगत ठहरा रहा है कि जनाब मैं नैतिकता के सिद्धांतों का पालन करता रहा, सदा सच बोलने का प्रयास किया, इसलिए जीतने के लिए जो मूल शर्ते थीं, नहीं पूरी कर पाया, फिर उपलब्धियों की कौन सी मंजिलें विजित करना चाहता मैं आप? आज जो सच बोलने की तकलीफ  नहीं करता, ईमानदारी और मेहनत का दामन नहीं थामता, वही चाणक्य नीति का सच्च साधक है कि ‘भय्या अप्रिय सत्य न बोलो। सब को प्रिय लगने वाले झूठ का आसरा लो। बार-बार दुहराने पर यह झूठ ही सच लगने लगेगा।’ यारों ने घपलों-घोटालों के रिकार्ड तोड़ दिए। आजकल सौ दो सौ करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप लगाना घोटालाबाजों का अपमान है। घोटाला किया भी और वह लाख दो लाख करोड़ से आरोप तक न पहुंचाए तो ऐसे शक्तिहीन आरोप लगाने में लज्जा है। इसकी जांच के लिए तो आजकल कोई ठंडे बस्ते का मुंह खोलने का भी प्रयास नहीं करता। इसका निपटारा तो मीडिया में खंडन करने से ही हो जाता है। यारों ने लाखों करोड़ के घोटाले राजनीतिक अदावत के नाम पर गुम कर दिए, सौ-दो सौ करोड़ रुपए के बच्चू घोटाले राजनीति के इस नमुल युद्ध में कहां गुम हो गए, कुछ पता नहीं चलता। यही फार्मूला विकास मापने का नया पैमाना बन गया। माना हम महंगाई कम नहीं कर सके, लेकिन अपनी युग से तुलना कर लो, तुम्हारे युग में तो महंगाई का सूचकांक दो अंकों में रहता था, हम इसे एक अंक में ले आए। बस अब सिर खुजलाने के सिवाय क्या करें? अजी दो अंक और एक अंक क्या, तुम तो न जाने कितने सप्ताह इसे सिफर भी कहते रहे, लेकिन बाजार जाओ तो वस्तुओं की कीमतें उसी तरह झटका देती हैं। थैला भर नोट ले जाते हैं, मुट्ठी भर वस्तुएं ले आते हैं। मिलावटखोरों और जमाखोरों के भव्य प्रासाद इसी बला पर खड़े हो गए। इस प्रासाद की नींव से परे एक टूटा फुटपाथ है, जिसके साथ कभी बच्चों का घासीला मैदान था, अब वहां कूड़े का डंप बन गया। उसके किनारे बैठ सींकिया बदन आदमी रोज शाम को राम धुन गाते हैं, जब तक कि उनकी राम नाम सत नहीं हो जाता। राम नाम सत हो जाना अब कहीं भी दुख का एहसास नहीं देता। यह आदमी जीवन भर न खेला न खाया, न जिया न मरा, न पहना न हंडाया। अब ऐसे आदमियों का जीना क्या और मरना क्या? चल बसा तो धरती का बोझ घटा। देश की बढ़ती आबादी में ब्रेक लगी। अहलकार नए आंकड़ों को पेश करते हुए परिवार नियोजन कार्यक्रमों की सफलता की घोषणा कर सकते हैं। नहीं इसके साथ अपने देश का दर्जा भुखमरी सूचकांक में अपर होता हुआ न देखना, लेकिन भय्या यह तो मधुमक्खियों का छत्ता है। एक धंधा कानूनी बनाओगे तो सब धंधे कानूनी बनाने पड़ेंगे। देखते ही देखते कहीं ऐसा न हो जाए कि ये सब धंधे कानूनी हो जाए, और आदमी गैर-कानूनी। तभी तो आज चौराहे पर भीख मांगने वालों की आवाज धड़ल्लेदार हो गई। आप उसे पांच-दस रुपए से कम भीख भी देकर दिखाइए, वह करुणा से भर आर्द्र स्वर में कह देगा ‘अरे भाई, इतने ही टूटे हुए तो चोला क्यों नहीं बदल लेते’? इस फटीचर साइकिल मोपेड को छोड़ो, हमारे साथ चलो, हमारा धंधा अपना लो। बैसाखियां भी किराए पर मिल  जाती हैं, और जख्मों पर लगाने वाला लेप भी। मांगने के लिए अगला चौराहा तुम संभाल लो। मोपेड से स्कूटर बनाते देर नहीं लगेगी। अहा! देश कितना तरक्की कर रहा है।