खुदाई महज कमाई नहीं

कमाई की खुदाई में माइनिंग को अगर व्यवसाय मानें या सरकार की आय का स्रोत, तो वार्षिक खनन का हिसाब हिमाचल के खजाने में लक्ष्यों से कहीं अधिक मुनाफा दे रहा है। जनवरी तक के आंकड़ों में माइनिंग लीज पर गई 350 पट्टियों ने 174 करोड़ सरकार के खजाने में डाल दिया। इसे हम आमदनी के नजरिए से देखें, तो आय का यह स्रोत मिट्टी को सोना बना रहा है, लेकिन पहाड़ की तरह समझें तो हर लीज के जख्म गहरे हो जाते हैं। खनन का एक रिश्ता जरूरत से है, लेकिन दूसरा पर्यावरणीय व पारिस्थितकीय चुनौतियों के खिलाफ भी है। अतः बहस केवल खनन या खनन माफिया पर नहीं और कमाई में जाते प्राकृतिक संसाधन पर भी नहीं, बल्कि उस दर पर होनी चाहिए जिस गति से खुदाई हो जाती है। खनन सीधे कमाई करे या विकास के प्रमुख घटक के रूप में मांग की आपूर्ति। बेशक खनन के जरिए विभाग अपनी क्षमता के अनुरूप पैसे बटोर ले, लेकिन इसके एवज में जरूरत से ज्यादा गायब होती सामग्री का जिक्र भी तो अपने पैमाने सुनिश्चित करे। हर किस्सा कमाई पर खत्म हो जाए या कमाई की धुन में किस्सा ही न रहे, तो फिर भविष्य की चुनौतियां कब तय होंगी। यह एक कसौटी भरा सवाल तो रहेगा ही कि पहाड़ को खोदने की कोई सीमा तो बने। कुछ इसी तरह का सवाल शराब के जरिए बढ़ती कमाई से भी पूछा जाएगा कि खजाने में आते धन ने कितनों के फेफड़ों का सौदा किया। सरकारी खजाने को भरना महज सौदेबाजी नहीं, फिर भी आय के प्रमुख स्रोतों में अब विषाद पैदा होने लगा है। यह मसला पर्वत की खुदाई का है, तो इसके साथ जुड़ते विकास को भी समझना होगा। निजी तौर पर विकास के आदर्श जिस तरह बेपरवाह तथा निरंकुश हुए हैं, वहां कमाई की शर्तों ने पहाड़ की कब्र खोद दी है। एक अनुमान के मुताबिक प्रदेश भर में कम से कम पंद्रह हजार जेसीबी या इसी प्रकार की मशीनें कार्यरत हैं, तो इनकी सक्रियता से पहाड़ के कितने छिलके उतर रहे होंगे। प्रदेश भर की सड़कों के किनारे उभरता बाजार आखिर एक कटाव ही तो है। खनन केवल रेत-बजरी नहीं, पर्वतीय परिदृश्य में उभरते नए विकास की नींव भी है। ऐसे में खनन पट्टियों पर बहस का सीमित निष्कर्ष उस चिंता से नहीं जुड़ता, जहां विकास के रास्तों पर पर्वत को खंडहर बनाया जा रहा है। शहरी नियोजन की परिकल्पना को तहस-नहस करने की परिपाटी के बीच जो खनन व्यापारिक उद्देश्य उगा रहा है, क्या उसे माफ कर दें। जहां प्राकृतिक स्रोतों के मुंह बंद करके कंकरीट उगाया जा रहा है, उसे केवल विकास की रसीद न सौंप दें। खनन के पीछे कितना माफिया, कितना हाशिया बचा है, इस तफतीश की जरूरत तब भी रहेगी जब सरकारें अपनी आय के लिए पूरी चादर बिछा देंगी। हिमाचल में भले ही विकास की बहस का हर पहलू सुर्ख रहे, लेकिन इसके तौर तरीकों पर निगहबानी रहनी चाहिए। यह केवल खड्डों, नालों, नदियों या रेतीले स्वां के खनन में पिघलने का सबब नहीं, बल्कि विकास के हर धरातल को खोदती निगाह का कसूरवार चेहरा भी है। अवैज्ञानिक खनन या निजी खुदाई के बेरहम अध्यायों ने कितनी घाटियां रौंद डालीं, दृश्यावलियां छिपा दीं या पहाड़ को नीचा दिखा दिया, जरा गौर से देखें कि हर इमारत भी जेसीबी को मजबूर कर रही है कि जमीन को खोखला कर दो। विषय की व्यापकता में बहस महज एक मुद्दा नहीं और न पक्ष-विपक्ष के बीच आंकड़ों का नफा-नुकसान, बल्कि नीतियों का अवलोकन जहां गुजारिश करे, कुछ एहतियाती परिवर्तन की गुंजाइश को सदा मुकम्मल करना होगा।