जनता कर्फ्यू में जनजीवन

विकेश कुमार बडोला

लेखक, उत्तराखंड से हैं

रविवार को सुबह से ही सड़कें, बाजार, गलियां, चौराहे और यहां तक कि घर भी सुनसान थे। लोग घरों की छतों पर भी नहीं दिखाई दिए। कोरोना वायरस की महामारी से लोगों की रातों की नींदें उचटी हुई हैं। इस शहर में कोरोना के संकट से थोड़ा दूर होते हुए भी लोग संभवतः कोरोनाग्रस्त बडे़ शहरों में रह रहे अपने परिजनों के लिए चिंतित होंगे। इस समय चिंता, डर और मौत की आहट लोगों की नींद व चैन सब कुछ हरण कर रही है। यह लेखक पहाड़ की तलहटी में बसे एक छोटे शहर में रहता है…

जैसा प्रधानमंत्री ने आह्वान किया था कि रविवार को लोग घर से बाहर न निकलें, उनकी बात का असर हुआ और भारतवर्ष का भूखंड रविवार 22 मार्च को निर्जन बना रहा। लोगों ने प्रधानमंत्री की बात का अक्षरशः पालन किया। रविवार को सुबह से ही सड़कें, बाजार, गलियां, चौराहे और यहां तक कि घर भी सुनसान थे। लोग घरों की छतों पर भी नहीं दिखाई दिए। कोरोना वायरस की महामारी से लोगों की रातों की नींदें उचटी हुई हैं। इस शहर में कोरोना के संकट से थोड़ा दूर होते हुए भी लोग संभवतः कोरोनाग्रस्त बडे़ शहरों में रह रहे अपने परिजनों के लिए चिंतित होंगे। इस समय चिंता, डर और मौत की आहट लोगों की नींद व चैन सब कुछ हरण कर रही है। यह लेखक पहाड़ की तलहटी में बसे एक छोटे शहर में रहता है। सामान्य दिनों में यह शहर दिल्ली जैसे बड़े शहरों की तरह ही यातायात, सार्वजनिक हलचल, लोगों के आवागमन और अन्य दैनिक गतिविधियों के कारण ध्वनि भार से दबा रहता है, परंतु रविवार को सब कुछ बंद था। सुबह के समय तो कुछ लोग दूध लेने घर से निकले भी थे, पर दोपहर बिलकुल सुनसान थी। दोपहर में छत पर जाकर शहर के चारों ओर दृष्टि घुमाई तो दूर-दूर तक सीमेंट निर्मित घर ही दिखाई दे रहे थे। तरह-तरह के रंगों से पुते हुए घर लोगों के बिना आधुनिक जीवन का अस्तित्व लग ही नहीं रहे थे। चारों ओर चिडि़यों की चहचहाहट ही सुनाई दे रही थी। पक्षियों को जरूर ये एहसास हो गया होगा कि आज प्रकृति ने उनके लिए विशेष जीवन व्यवस्था की है।

वे नैसर्गिक तरीके से यहां-वहां उड़ रहे थे। दोपहिया, चौपहिया और अन्य वाहनों के चलने से निकलने वाली आवाज नहीं थी। वाहनों का धुंआ नहीं था। डीजल, पेट्रोल और धूल की गंदगी नहीं थी। इस शहर से जुड़े अन्य शहरों से आने वाले वाहनों और लोगों के थम जाने से यह शहर पुनीत प्रतीत हो रहा था। सड़कें, शहरों के भवन, शहर का स्वभाव और संपूर्ण परिवेश आज अत्यंत सुंदर दिखाई दे रहे थे। लोगों के बीच होने वाली अनावश्यक बातचीत का धीमा ध्वनि विष खत्म था। आधुनिकता के पहिए थम जाने से मानवीय जीवन सचमुच बहुत पवित्र और मौलिक अनुभव हो रहा था। पिछली रात इस शहर के आसमान में काले बादल घिर आए थे। यहां से सुदूर उत्तर-पूर्वी पहाड़ों और पश्चिमी दिशा में स्थित अन्य शहरों में पिछली रात बारिश हुई थी। इस शहर के ऊपर आकाश पर छाए काले बादलों के बीच-बीच में बिजली की चमकार उभर रही थी। हवा ने आंधी का रूप धारण किया हुआ था। खिड़कियों की ढीली चटकनियां रातभर टक-टक कर बजती रही, लेकिन सुबह उठने पर देखा कि आकाश नीला छत्र बनकर चमक रहा था। धूप पीली आभा बिखेर रही थी। चारों ओर व्याप्त हरियाली चैत्र के रूप-सौंदर्य के साथ उपस्थित थी। दोपहर में छत से देखा कि आमों के वृक्षों पर नई-नई कोंपलें फूटी हुई हैं। आमों के वृक्ष नए आकर्षण से चमक रहे हैं। कोयल की कुहूक, चिडि़यों की चहचह, कबूतर की गुटुर-गू, अन्य पक्षियों की चीं-चीं, चूं-चूं अधिक सुनाई दे रही थी। मशीनों के हस्तक्षेप से बाधित धरती पर रविवार का जीवन मशीनी निष्क्रियता से अत्यंत प्रशांत, आह्लादकारी और आनंदित था। यह सब लिखते हुए घर की खिड़की खुली है। खिड़की के बाहर मेरी पहुंच से डेढ़ मीटर दूर गोरैया बैठकर फुदक रही है। चीं-चीं चूं-चूं कर रही है। कानों में पक्षियों की चिचियाहट के अतिरिक्त कुछ नहीं। घरों की छतों पर सूखने के लिए डाले गए कपड़ों से ही लग रहा है कि घरों में मनुष्य भी होंगे।

मौत का भय मानव को शांति, धैर्य, स्थिरता, गंभीरता, आत्मचिंतन और संवेदनशीलता सब सिखा देता है। रविवार को भारतीय जनजीवन और इसके परिवेश को देख यही अनुभव हो रहा है। लगता है लोग अचानक से समझदार हो गए हैं। लगा लोगों में सहसा अत्यधिक बुद्धि और विवेक जाग्रत हो उठा है। कोरोना वायरस से बचने के लिए किए जा रहे उपायों में से एक उपाय ‘जनता कर्फ्यू’ ने लोगों को आत्मिक, आध्यात्मिक और प्राकृतिक होने का अवसर प्रदान किया। आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर महसूस होगा कि जीवन का नाम चलना ही नहीं। जीवन में हर समय संघर्ष करते रहना अनुचित है। ठहराव, शांति, निर्लिप्तता और कुछ नहीं करने की स्थितियां भी जीवन के लिए परमावश्यक हैं। दुर्भाग्य से अध्यात्म का यह पक्ष आधुनिक दुनिया के लोग भुला चुके हैं। इसी का दंड, दुष्परिणाम और दंश है जो आज संपूर्ण मानवजाति कोरोना जैसी महामारी की चपेट में है।

आखिर जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु ही तो है, जिसे लोग श्मशान में जाकर पड़ते-समझते तो अवश्य हैं पर हमेशा खुद को इस सत्य से अलग करने की कोशिश में लगे रहते हैं। मानव को ये विश्वास अवश्य हो कि मृत्यु का सत्य उसके जीवन में भय मिश्रित अवसाद उत्पन्न करने के लिए नहीं, अपितु जीवन के आनंद में उत्पन्न कोरोना जैसी बाधा से लड़ने-भिड़ने के लिए स्वीकार होना चाहिए। यह स्वीकृति निश्चित रूप में बाधाओं पर विजय का अमिट संकेत है। क्या हमें मानव जीवन को आगे भी ऐसे ही नहीं बनाना चाहिए? क्या हमें ये विचार नहीं करना चाहिए कि कोरोना वायरस की उत्पत्ति ऐसे जीवन के नहीं रहने से ही हुई होगी। इंटरनेट समाचार में पूरे भारत के छोटे-बड़े शहरों की निर्जन सड़कों, भवनों और अन्य सार्वजनिक स्थानों को देख जीवन के लिए हृदय में एक नई अनुभूति हुई। सामान्य दिनों में अव्यवस्थित, अस्त-व्यस्त, कुंठित, दुखित, ईर्ष्यालु, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के भाव से भरी देश के लोगों की भीड़ शहरों की इन्हीं सड़कों, भवनों और दूसरे सार्वजनिक स्थलों को कितना अनाकर्षक बना देती थी! परंतु रविवार को सब कुछ बदला-बदला सा लगा। कोरोना वायरस से बचने के लिए ऐसे अभ्यास बार-बार करने होंगे। यदि लोगों को अपने और अपने परिजनों के जीवन से प्रेम है तो कोरोना वायरस के समाप्त होने तक ही नहीं बल्कि उसके बाद भी सप्ताह, महीने, दो महीने या वर्ष में जनता कर्फ्यू लगते रहने चाहिए। ऐसे कर्फ्यू प्रधानमंत्री या किसी अन्य प्रभावशाली व्यक्ति के आह्वान पर ही नहीं अपितु एक-एक व्यक्ति के आत्म-आह्वान पर भी लगने चाहिए। इस उपक्रम से निश्चित रूप में पृथ्वी अपने नैसर्गिक रूप में आएगी। पृथ्वी स्वरूप में होगी तो मानव जीवन में कोरोना वायरस नहीं आएंगे। कोरोना और वायरस पिछले तीन-चार महीनों से सर्वाधिक प्रचालित शब्दद्वय बने हुए हैं। आसन्न मौत से भयाक्रांत दुनिया के सभी लोगों के मानस पर कोरोना की काली छाया कभी नहीं मिटने के भाव से मंडरा रही है। कोरोना विषाणु हैं तो अदृश्य, पर इन्होंने विश्व के सभी लोगों का अहंकार तोड़ कर रख दिया है। एक दिखाई नहीं पड़ने वाला विषाणु लोगों के प्राण ऐसे ले रहा है मानो मंत्र फूककर मौतें हो रही हैं। परमाणु अस्त्र-शस्त्र के बल पर एक-दूसरे को मात देने के लिए दुष्प्रेरित अधिसंख्य विकसित, विकासशील और दूसरे देशों के शासक सहमे हुए हैं। आतंक फैलाकर जगव्यापी समस्या बने आईएस आतंकी भी कोरोना विषाणु से भयग्रस्त हैं। खुद कोरोना विषाणु उत्पन्न करने वाला देश चीन भी विषाणु के चीनव्यापी दुष्परिणामों से तत्काल निपटने में विफल रहा। संपूर्ण यूरोप में सैकड़ों लोग प्रतिदिन असमय मृत्यु का ग्रास बन रहे हैं। इक्कीसवीं सदी कोरोना वायरस द्वारा फैलाई गई महामारी के लिए याद की जाएगी। कोरोना वायरस के प्रकोप से ध्वस्ताधूत जनजीवन को देख संवेदनशील मनुष्य सहजाकलन कर सकता है कि प्रलय किसी दूसरे रूप में परिभाषित और घटित नहीं होती। प्रलय ऐसे ही होती है।