जीवन के परम रहस्य

ओशो

लोग अकसर कहते सुने जाते हैं, जो होता है ठीक ही होता है। इस ठीक का क्या अर्थ है? क्या यह सिर्फ  एक सांत्वना है मन को समझाने के लिए? क्या यह संभव है कि जो भी होता हो, सभी ठीक होता हो। श्रेष्ठतम नियम भी निकृष्टतम उपयोग में लाए जा सकते हैं। जीवन के परम रहस्य की बातें भी क्षुद्रताओं को छिपाने का कारण बन सकती हैं। ऐसा ही यह सूत्र भी है और लाओत्से से संबंधित है इसलिए इस पर विचार करना उचित है। लाओत्से कहेगा, जो होता है ठीक ही होता है। इसलिए नहीं कि यह कोई सांत्वना है, बल्कि इसलिए कि ऐसी ही लाओत्से की दृष्टि है। लाओत्से कहता है, जो गलत है, वह हो ही कैसे सकता है और जो भी हो सकता है, वह ठीक है। यहां ठीक से संबंध, जो हो रहा है, उसके संबंध में वक्तव्य नहीं है, बल्कि जो हो रहा है, उसको देखने वाले के संबंध में वक्तव्य है। जब लाओत्से कहता है, जो होता है ठीक होता है, तो वह यह कह रहा है कि अब इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरे लिए बुरा हो। यह वक्तव्य, जो होता है, उसके संबंध में नहीं है। यह वक्तव्य साक्षी के संबंध में है, लाओत्से के खुद के संबंध में है। लाओत्से यह कह रहा है कि अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरे लिए बुरा हो सके। मैं उस जगह खड़ा हूं, जहां बुराई नहीं छू सकती है। अब सभी कुछ ठीक है। अब इसलिए सभी कुछ ठीक है कि लाओत्से उस आनंद में है, जिस आनंद को नष्ट करने का अब कोई उपाय नहीं। आपके लिए सभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। आपके लिए वही ठीक होगा, जिससे सुख मिले और वह गलत होगा, जिससे दुख मिले। जब तक आपको दुख मिल सकता है, तब तक सभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। जब तक आप दुखी हो सकते हैं, तब तक सभी कैसे ठीक होगा। जिसे प्रेम करते हो और वह न मिल सके, कैसे कह सकेंगे कि ठीक हुआ। जीवन भर, जो आप समझते हैं अच्छा है, करते रहे और परिणाम बुरे हों, कैसे कह सकेंगे कि ठीक हुआ। नहीं कह सकेंगे, क्योंकि आपका सुख कारण निर्भर है, तो जिन कारणों से सुख सध जाता है, वे ठीक हैं और जिन कारणों से नहीं सधता, वे ठीक नहीं हैं। जब तक आपको सुख-दुख में फर्क है, तब तक कुछ गैर ठीक होगा ही। बीमारी को कैसे ठीक कहेंगे और मौत को कैसे ठीक कहेंगे। जब तक जीवन की चाह है, तब तक मौत तो बुरी होगी ही और जब तक स्वास्थ्य की आकांक्षा है, तब तक बीमारी शत्रु है। जब हम किसी चीज को ठीक और गैर ठीक कहते हैं, इससे कोई संबंध नहीं है। हमारी अपेक्षाओं की हम खबर देते हैं और अगर ऐसा आदमी कहे कि सब ठीक है, तो यह कंसोलेशन, सांत्वना ही होगी। इस कहने में कोई आनंद न होगा, सिर्फ  एक निराशा, एक उदासी होगी। इस वक्तव्य में कोई विजय की घोषणा नहीं है।  कुछ नहीं कर पाते हैं इसलिए समझा लेते हैं अपने को कह कर कि सब ठीक है। संतोष पराजितों की भी सहायता करता है, लेकिन वह संतोष झूठा होता है। वास्तविक संतोष तो उन्हें ही मिलता है, जो जीवन के विजेता हैं। लाओत्से ने कहा है तुम मुझे हरा न सकोगे, क्योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ हूं। तुम मुझे मेरे सिंहासन से उतार न सकोगे, क्योंकि मैं जहां बैठा हूं, वह अंतिम स्थान है। उससे नीचे उतारने का कोई उपाय नहीं है। तुम मुझे दुख न दे सकोगे, क्योंकि मैंने सुख की आकांक्षा को ही विसर्जित कर दिया है। इस अर्थ में जो विजेता है, संतोष उसके जीवन में प्रकाश की तरह है।