फिर कर्फ्यू जान लीजिए

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

यकीन मानिए जब से कोरोना ने हमें घर में बंद किया है, हमारा पुश्तैनी हुनर बढ़ गया है। अब न रोजगार और न ही व्यापार की चिंता है। मुन्नी अब बदनाम होने से बच गई। मुन्ना अब गली-मोहल्ले में झांक नहीं पाता, लिहाजा सारी शराफत हमारे घर की छत से टपक रही है। वैसे पूरा मोहल्ला ही अपनी खुराफत को निगल गया। अब गुप्ता जी भी घर में बंद हैं और शर्मा जी को सांप ही सूंघ गया, वरना इन दोनों महाशय की चर्चाओं में न जाने कितनी बार हमारे नरेंद्र मोदी जी हारते रहे हैं। गुप्ता जी की तो दुकान क्या बंद हुई, उन्होंने नोटबंदी और जीएसटी तक का जिक्र करना छोड़ दिया। दुकान के बचे खुचे आलू-प्याज से जिंदगी चला रहे हैं, पर क्या मजाल जो इन्हें अपनी वित्त मंत्री सीतारमण पर अब कोई एतराज हो। उधर शर्मा जी के तो नाक पर अब भले ही मक्खियां बैठ जाएं, उन्हें किसी से शिकवा नहीं। उनके लिए तो एक पैकट दूध नसीब हो जाए, तो वह दिन भर की भविष्यवाणी कर देते हैं।  उन्हें अब यह चिंता भी नहीं कि जनता कर्फ्यू के दौरान उन्होंने पीट-पीट का जो थाली तोड़ दी थी, उसका कबाड़ी भी कोई दाम नहीं देगा। सकून की वजह यह भी कि शर्मा जी की बीवी पंजाब में अपने मायके कर्फ्यूग्रस्त हो गई है, लिहाजा वह स्वतंत्र हैं। खैर अपनी बात अलग है, इसलिए इक्कीस दिन का खाका मुकर्रर है। उम्मीद है कि जब तक कर्फ्यू उठेगा, हमारे कर्मक्षेत्र में इतना इजाफा तो हो ही चुका होगा कि हम तब इसी कलम में, किचन में बेहतर साबित होने के नुस्खे बता रह होंगे। वास्तव में ‘छिलकों की छावड़ी’ का ज्ञान तो कर्फ्यू करवा रहा है। घर में कब छिलके उतर जाएं और छावड़ी भर जाए,यह अब तक पुरुष समाज को समझ में आ गया होगा, बल्कि शक यह है कि जब कर्फ्यू उठेगा तो इस कालम में हर पति अपना अनुभव पेल रहा होगा। देखते हैं अपने लेखक बंधु घर में कितनी चक्की पीस पाते हैं। दरअसल कर्म की कर्मशाला ही घर है, जहां आप लाख कोशिश करें घर का काम कभी पूरा नहीं कर पाएंगे। तसल्ली बख्श तो कतई नहीं। दरअसल हमने तो कर्फ्यू में भी सीख लिया कि अंततः यहां भी ‘देशप्रेम’ ही जीतेगा,इसलिए जब कभी मन उदास होता है,‘भारत माता की जय’ का उदघोष कर देते हैं। एकदम पड़ोसी गुप्ता जी में इस दौरान अजब का भरोसा दिखाई दे रहा है। सोशल डिस्टैंसिंग के बीच कहने लगे,‘यह भारत है भाई साहब। हर दौर से निकलता है और हर कर्फ्यू में बचता है। इसलिए हम निकल जाएंगे। शर्मा जी खुश हैं क्योंकि पोते की जिद पर भी अब पिज्जा खाना नहीं पड़ेगा। कर्फ्यू में ढील के दौरान भी कुछ लोग ठेके के बाहर तक सूंघ आते हैं, फिर भी यह नींद की मजबूरी पूरी नहीं होती। अब सोचिए उन लोगों की चारित्रिक जरूरतों के बारे जो शालीनता से काफीहाउस को हमेशा गर्माहट से भरे रखते हैं या बेचारे सरकारी ओहदेदार जो कार्यालय में ही धूप सेंकते थे और अब घर की धूल में कर्फ्यू का मनाचित्र बना रहे हैं। अपने घर की दीवार पर लगा सरकारी कैलेंडर घूरने लगा है,क्योंकि अब मेरी तरह हर सरकारी कर्मचारी को इसमें अवकाश या अवकाश का गठजोड़ नहीं ढूंढना पड़ेगा। कहीं कर्फ्यू के इन दिनों में हस्ताक्षर करने ही न भूल जाऊं, क्योंकि दिनभर हाथ अब पत्नी के सामने उसी नमस्कार भाव में रहते हैं, जो इस दौर का फैशन है।