श्री गोरख महापुराण

गतांक से आगे…

काफी समय बाद जब जालंधरनाथ की समाधि टूटी,तो अपने सामने दो नारियों को बैठे पाया। उन्होंने पूछा माताओ आप कौन हो और आधी रात को मेरी धुनी पर किस उद्देश्य से आई हो। मैनावती दोनों हाथ जोड़कर बोली, योगीराज मैं यहां के राजा गोपीचंद की जननी हूं। मेरा नाम मैनावती है और मेरे साथ यह मेरी दासी है। इस समय मैं यहां आपके दर्शनार्थ ही आई हूं। मैं विधवा होने के नाते सबके सामने नहीं निकलती हूं। इसलिए रात्रि में यहां आना पड़ा। मैनावती की बात सुनकर योगीराज बोले माता नेक स्त्री को रात्रि के समय  किसी से भेंट करना कलंक की निशानी है। यह दुनिया कपट की खान है। इस स्वार्थी दुनिया में फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है। यह संसार किसी पर भी मिथ्या दोष लगा सकता है। मैनावती बोली, आप तो ब्रह्म ज्ञानी संत हैं। आपकी दृष्टि में नर-नारी में भेद क्यों? आप इस नाशवान संसार से व्यर्थ ही भयभीत होते हो। मैं तो इस दुनिया वालों से कतई नहीं डरती। जो अधर्म करे वही भय माने। मैं जिस गूढ़ ज्ञान के वास्ते यहां आई हूं, तो मैं अपना उद्देश्य पूरा किए बिना नहीं जाऊंगी। जालंधरनाथ ने क्रोधित होकर कहा, अगर आप लोग राजी से नहीं जाएंगी तो मैं ईंट-पत्थर मारकर तुम दोनों के सिर फोड़ दूंगा। आप लोगों का भला इसीमें है कि इस स्थान से उठकर चली जाओ। जालंधरनाथ की बातें सुनकर मैनावती बोली, महाराज अगर आपके कर कमलों द्वारा हमारी मृत्यु हो जाए,तो हमसे ज्यादा भाग्यशाली कौन होगा? साधु-संतों के हाथ से किसी भाग्यशाली को ही मुक्ति मिलती है। रानी मैनावती को अपनी धुन की पक्की समझ कर जालंधरनाथ बोले, आखिर आप लोग किस उद्देश्य से आई हो? मैनावती बोलीं, आप मुझे अमृतपान कराकर मेरी आज्ञानता दूर करें। मैनावती की ज्ञान पिपासा की बात सुनकर जालंधरनाथ बोले, इस समय तुम यहां से चली जाओ। मुझे भजन करने दो। समय आने पर तुम्हें अपनी चेली बनाकर दीक्षा दूंगा और अमृतपान करा कर अमृत्व का वरदान दूंगा। जालंधरनाथ की बात सुनकर मैनावती ने उनके चरणों में शीश झुका दिया और प्रणाम करके अपनी दासी के साथ वापस घर आ गई। राजमाता मैनावती तीसरे-चौथे दिन अर्द्ध रात्रि पर्यंत दासी को साथ लेकर जालंधरनाथ की कुटिया में पहुंच जाती और धर्म चर्चा सुनकर लौट आती। एक दिन जालंधरनाथ आंखें मूंदे तपस्या कर रहे थे। मैनावती हाथ जोड़े आसन पर विराजमान थी। तभी एक भयंकर काला सांप तेज रफ्तार से रानी के पास आ पहुंचा और रानी के ऊपर चढ़ गया।  तब दासी भयभीत होकर शोर मचाने लगी। परंतु रानी ने कोई घबराहट नहीं दिखाई और न ही दासी के शोर का उस पर कोई असर हुआ। वह निडर हो अपने आसन पर बैठी रही। सर्प देवता बिना काटे ही आलोप हो गए।

इस प्रकार रानी की कई परिक्षाएं हुईं, परंतु रानी सब में ही पास हो गई। जालंधरनाथ ने धर्म उपदेश देकर मैनावती को अपनी शिष्या बना लिया और स्वयं गुरुदेव बन गए। जालंधरनाथ की कृपा से रानी को सारा जगत ब्रह्ममय दिखने लगा। मैनावती के अज्ञान का नाश हो गया। तब उन्होंने अपने गुरु जालंधरनाथ के चरणों में मस्तक नवा दिया। जालंधरनाथ ने विद्या मंत्रों का उच्चारण कर रानी मैनावती को अमरता का वरदान दे दिया। मैनावाती प्रसन्नता से परिपूर्ण हो गई। उल्लासता के साथ मैनावती घर लौटी। फाल्गुन का महीना था। राजा गोपीचंद तेल की मालिश करवा धूप में बैठे स्नान की तैयारी में थे। अन्य रानियों के साथ पटरानी लोमावंती भी दही,चंदन केसर मिश्रित जल से स्नानपयोगी सुगंधित सामग्री लिए राजा की आज्ञा के इंतजार में खड़ी थी। गोपीचंद चंदन चौकी पर स्नान के वास्ते तैयार बैठे थे। उसी के ऊपर रानी मैनावती की अटारी थी।                                – क्रमशः