नजरबंदी में मैं और मेरा साहित्यकार

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

एक अमरीकी आलोचक ने लिखा है कि किसी भी साहित्यकार को अपनी रची जा रही कृति या रचना नहीं दिखानी चाहिए, जैसे कोई मां अपनी कोख में पल रही संतान को प्रसूति से पहले नहीं दिखा सकती। परंतु दिव्य हिमाचल के सूत्रधार तो लेखकों की कोख को भी टटोल लेने में दक्ष हैं। अभी कर्फ्यू लगे कुछ दिन हो गए हैं। फुरसत से बैठना-उठना सृजन के लिए मूड बना देता है। हां, फिलहाल एक कहानी तृप्ति शीर्षक से लिखी है, जो मजदूरों की मजबूरी और समाज की अपंगता को दर्शाने का प्रयत्न है कि कैसे वे गठरियां सिर पर रखे, कंधों पर अपने नन्हें-मुन्नों को बिठाए चार-चार सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने घरों को पैदल ही चल पड़े हैं। मैंने सन् 1947 का भारत विभाजन का समय भी देखा है। तब भी इसी प्रकार लोग गठरियां उठाए मुसीबत के मारे दिपते-भागते दिखाई देते थे और जहां भी किसी दुश्मन की उन पर नजर पड़ जाती, वहीं बरे की तरह काट दिए जाते थे। अब डर है कि इसी प्रकार यदि दिल्ली या दूसरे शहरों से लोग पैदल भीड़भाड़ में निकलते रहेंगे तो कोरोना दबोच लेगा। पौंग विस्थापितों की समस्या पर एक उपन्यास एक-डेढ़ साल से चल रहा है। एक सौ नब्बे पृष्ठ लिखे जा चुके हैं। आशा है यह पूरा हो जाएगा। एक छोटी सी कविता भी लिखी है-लॉकडाउन लगते ही कैसे व्यापारियों की जीभ लपलपाने लगी है और घोषणा होते ही प्याज के भाव 25 से 50-60 रुपए प्रति किलो हो गए। अठारह-बीस किताबें समीक्षा के लिए आई पड़ी हैं यथा आचार्य राजेंद्रनाथ मेहरोत्रा की ‘भारतीय संस्कृति संवाहिनी सरिता’, अजय पाराशर की कस्तूरी, आरपी गुप्ता की ‘पर्जन्य’, सुदर्शन वशिष्ठ के बेहतरीन व्यंग्य, मुरारी शर्मा का कहानी संग्रह ढोल की थाप, विक्रम गथानिया का आत्मकथात्मक उपन्यास, प्रेमलता का कविता संग्रह कण कण फैलता आकाश मेरा आदि पुस्तकें। घर खुली जगह में बना है और आगे-पीछे आंगन है। कभी ऊपर, कभी नीचे घूमते रहते हैं। कभी मन न लगे तो किचन गार्डन में फावड़ा चला लेते हैं। और कभी किट्टम किट्टू फार्म में जाकर मेमनों से बात कर लेते हैं। चटपटा खाने की आदत है, तो कभी रसोई में टिक्कियां बन रही होती हैं, कभी आलू पूरी, गर्मागर्म मिर्ची वाले पकौड़े और किसी दिन दही-भल्ले। मजे लगे हुए हैं। आजकल पत्रकार अर्चना की बेटी कृति, जो एक मेडिकल कालेज में डाक्टर इन मेकिंग है और पत्रकार राजीव की बेटी तन्वी जो सलाईट लोगोवाल में फूड टेक्नालोजिस्ट इन मेकिंग है, आई हुई हैं, इसलिए माहौल बिल्कुल मस्ती वाला है। भले ही कोरोना शाप है, परंतु लॉकडाउन ने जो अभी तीन सप्ताह का समय दिया है, यह वरदान है। दाढ़ी बनाने की जरूरत नहीं, हर रोज पैंट-कमीज बदलने की आवश्यकता नहीं। सोशल मीडिया पर मैं सक्रिय नहीं। दरअसल मुझे फेसबुक, इन्सटाग्राम, या ऐसी ही दूसरी खुराफातें करनी नहीं आतीं और न ही सुदर्शन वशिष्ठ जैसे व्हाटसैप पर चुहल भरे कमेंट करने आते हैं। हां, धौलाधार के भावचित्र निहारने में आजकल खूब मजा आ रहा है। दोपहर में थोड़ी झपकी लेना तो मेरी आदत ही है, परंतु आजकल पिटारा या पंजाबी सिनेमा चैनल पर फिल्में देखना आदत सी बनती जा रही है क्योंकि पंजाबी फिल्में हंसी-मजाक और संदेश से भरपूर रहती हैं और हिंदी के फोके व्यंग्य पढ़ने की अपेक्षा फिल्में भरपूर मनोरंजन करती हैं। काम बहुत बाकी है। हिमाचल के हिंदी साहित्य का इतिहास के संवर्धन एवं संशोधन का काम भी चला हुआ है। और हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास भी और सामग्री की अपेक्षा करता है। इतना व्यवस्थित समय कभी आज तक मिला नहीं। अच्छा लग रहा है और कुछ न कुछ ठोस लिखा ही जाएगा, यही उपलब्धि होगी।